SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ जैनदर्शन तो ऐसा अनशन श्रेयस्कर तप है । जिन सज्जनों ने विद्याव्यासंग में निरत रह कर प्रशस्य शास्त्रों की रचना की है उनका विद्याव्यासंग में निरत रहकर प्रशस्य शास्त्रों की रचना की है उनका विद्याव्यासंग, शास्त्र-स्वाध्याय और ग्रन्थनिर्माण यह सब श्रेष्ठ तप है । कोई एक महान् कार्य हाथ में लेकर उसे पूर्ण करने के लिये सर्वप्रथम विचारणा करना, साधन एवं सहायक जुटाने, आयोजना करके उसे कार्यान्वित करना और यह सब करते-करते भूख, प्यास, श्रम एवं परिश्रम तथा कष्ट आदि भूल कर एकाग्रता से काम के पीछे लग जाना—यह समग्र व्यापार और व्यवहार तप है । लोगों के लिये पानी आदि का प्रबन्ध और तदर्थ प्रयत्न तप है । इसी प्रकार आत्मशोधन के प्रयास अथवा पवित्र कार्य में लगन तप है । परोपकारवृत्ति तप है । सत्यवादी का सत्यवाद, ब्रह्मचारी का ब्रह्मचर्य, सेवक की सेवा, योगी का योग, ध्यानी का ध्यान, भक्त की भक्ति, विद्यार्थी का विद्याभ्यास, विद्वान् का विद्याव्यासंग, अध्यापक की अध्यापकता, उपदेशक की उपदेशकता, लोकहितैषी की लोकहितसाधना ये सब निष्ठापूत होने पर तप है । इतना ही नहीं, प्रामाणिकतापूर्वक स्वकर्मनिष्ठा भी तप है । तप का सौंदर्य तो उसके पीछे रहे हुए विशिष्ट प्रकार के उल्लास और आनन्द में है । योग्यरूप से किया जानेवाला प्रमाणोचित उपवास शारीरिक आरोग्य के लिये लाभदायी है । सुज्ञबुद्धि मनुष्य को उसके आध्यात्मिक लाभ के (मानसिक विशोधन के) कार्य में भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है । इससे सहिष्णुता का अभ्यास होता है । 'उपवास 'शब्द में 'उप' का अर्थ समीप 'वास' का अर्थ बसना होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि 'आत्मा के समीप अर्थात् आत्मा की शुद्ध स्थिति में बसना ।' जितने अंश में यह अर्थ सधे उतने अंश में उपवास तप है । 'आयम्बिल' से' रसलोलुपता पर अंकुश लाने १. 'आयम्बिल' एक बार भोजन करने का व्रत है, परन्तु उस भोजन में दूध, दही, तेल, घी, गुड, चीनी और मिर्च आदि मसाले तथा हरे अथवा सूखे शाक-तरकारी, फल आदि सबका त्याग होता है । गेहूँ, बजरी, मूंग, उडद, चना, चावल आदि अनाज में से बनाए दाल, भात, रोटी आदि लिये जाते हैं । धानी, चना, मुरमुरा भी लिया जाता है और निमक, सोंठ, काली मिर्च का भी उपयोग किया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy