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________________ द्वितीय खण्ड अप्पमादो अमतपदं पमादो मच्चुनो पदं । अप्पमत्ता न मीयन्ति ये पमत्ता मता यथा ॥ अर्थात्—अप्रमाद अमृतपद है, जबकि प्रमाद मृत्यु धाम है । अप्रमादी मरता नहीं है ( उसका भौतिक शरीर नष्ट होने पर भी वह नहीं मरता, क्योंकि वह सत्कर्मों का जो प्रकाश फैला गया है उसके आलोक से वह सदा प्रकाशमान ही रहता है), जबकि प्रमादी मनुष्य जीता हुआ भी मरा पड़ा है । १२७ मनुष्य के पास यदि कोई आदर्श हो तभी संयमशील रह सकता है । परन्तु ऐसे आदर्श के साथ ही सर्जन का आनन्द मिले ऐसा कोई कार्यक्षेत्र' यदि उसके पास न हो तो संयम दुष्कर हो जाता है। मनुष्य शील का मूल्य जानता हो और शील के महत्त्व से वह प्रभावित हो तो संयममय जीवन जीया जा सकता है । संयम के लिये वातावरण की आवश्यकता है । वातावरण यदि संयमपोषक न हो तो गृहस्थ एवं संन्यासी दोनों के लिये संयम कठिन हो जाता है । संक्षेप में, संयम के पीछे भावना, सर्जन का आनन्द, I शीलनिष्ठा एवं वातावरण हों तो ये सब उसे उपयोगी तथा सहायक होते हैं । तप : उपवासादि तप का महत्त्व और गौरव उसके पीछे रहे हुए किसी उदात्त हेतु एवं भावशुद्धि पर अवलम्बित है । इसी तत्त्व पर उसे तपरूप से प्रतिष्ठा मिल सकती है । लोकसेवा के लिये अथवा अनीति - अन्याय के आवरणों से आवृत सत्य अथवा सत्य वस्तु को प्रकाश में लाने के लिये शुद्ध आध्यात्मिक प्रयास के रूप में महामना विशेषज्ञ अनशनादि तप का आश्रय लेते हैं । इनके पीछे रहे हुए पवित्र - प्रशस्त आशय के कारण तथा उज्ज्वल चित्तवृत्ति से सुशोभित होने के कारण अनशनादि तप लोकवन्द्य एवं श्रेयस्कर बनते हैं । योग, ध्यान, चित्तशुद्धि अथवा इन्द्रियसंयम के आशय से अशन का त्याग किया जाय, अन्तर्मुख होने की अथवा आत्मशान्ति प्राप्त करने की उच्च भावना से, सच्चिन्तन या स्वाध्याय अथवा अन्य किसी सत्कार्य या कल्याणलाभ के लिये अशन ( खानपान) की उपाधि से दूर रहा जाय १. All you lies in creation. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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