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जैनदर्शन
स्वाध्याय :
'स्व' एवं 'अध्याय' इन दो शब्दों के समास से स्वाध्याय शब्द बना है। इसका अर्थ होता है स्व का-आत्मा का-अपने जीवन का अध्ययन । जीवनप्रेरक सदुपदेश का वाचन-श्रवण-विचारणा वह स्वाध्याय । यह चित्त को स्वस्थ रखने में उपयोगी होता है और जहाँ-तहाँ भटकनेवाले मन को 'भीतर' झाँकने के लिये प्रेरित करता है । इसके परिणामस्वरूप प्रगति एवं प्रकाश का मार्ग सरल बनता है । स्वाध्याय' एक तप है और इसे तप के (उच्च कक्षा के तप के) भेदों में एक भेदरूप से शामिल करके जैनधर्म ने तप की व्यापकता एवं प्रत्यक्ष फलप्रदता का सुन्दर प्रदर्शन किया है । संयम :
इन्द्रियों पर अंकुश, मन पर अंकुश, वाणी एवं विचारों पर अंकुश, रसेन्द्रिय पर अंकुश, काम-क्रोध-लोभ पर अंकुश इसी का नाम संयम । जीवनयात्रा को सुखी, शान्त एवं आनन्दित रखने के लिये संयम की कितनी आवश्यकता है ? प्रमादभाव और संकल्प का दौर्बल्य जीवन के बड़े से बड़े रोग है । इन रोगों के कारण गिरता हुआ मनुष्य अन्ततः बहुत बुरी दशा में जा गिरता है । संयम तो मानसिक सुख का स्रोत है । शारीरिक अथवा भौतिक सुख का स्वाद भी संयम द्वारा ही मिल सकता है । बौद्ध धर्म का सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'धम्मपद' कहता है कि
१. स्वाध्यायान्न प्रमदितव्यम् । —तैत्तिरीयोपनिषद् २. त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ॥
—गीता अ. १६, श्लोक. २१. ३. न गंगा यमुना चापि सरयू वा सरस्वती ।
निन्नगा वा चिरवती मही चापि महानदी । सक्कुणंति विसोधेतुं तं मलं इघ पाणिनं । विसोधयति सत्तान यं वे सीलजलं मलं ॥ विशुद्धिमग्ग अर्थात्-गंगा, यमुना, सरयू, सरस्वती आदि नदियाँ प्राणियों के उस मैल को धो नहीं सकतीं जिसे सदाचरणरूप जल धो सकता है ।
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