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द्वितीय खण्ड
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मन्त्र में पहला पद नमो अरिहन्ताणं है, उसमें किसी व्यक्ति - परमात्मा का नामनिर्देश नहीं है, उसमें तो राग-द्वेषादि आन्तरिक शत्रुओं का जिस किसी ने नाश किया हो उसे उन सबको सामान्यरूप से नमस्कार किया गया है। I
गुरु की उपासना :
गुरु अर्थात् सामान्य आप्तजन । श्री हरिभद्राचार्य अपने योगबिन्दु में लिखते हैं कि
" मातापिताकलाचार्य एतेषां ज्ञातयस्तथा ।
वृद्धा धर्मोपदेष्टारो गुरुवर्गः सतां मतः ॥११०॥
इस श्लोक में गुरुओं का वर्ग बतलाते हुए वे कहते हैं कि मातापिता, विद्यागुरु, ज्ञाति- कुटुम्ब में के बड़े, श्रुतशीलवृद्ध और धर्मप्रकाशक सन्त ये गुरु हैं ।
इन गुरुओं की ओर यथोचितरूप से विनयशील रहना और उन्हें योग्य सहायता करना गुरु - उपास्ति है इसके द्वारा उनके पास से जीवन - विकासक ज्ञान - संस्कार प्राप्त करने में उद्यत रहना चाहिए । माता - पिता का का गुरुत्व सर्वश्रेष्ठ होनेसे 'माता-पित्रोश्च पूजकः' (माता-पिता का पूजक) सर्वप्रथम बनने का शास्त्र में विधान है ।
१. इस मन्त्र में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँच पदों का निर्देश करके नमस्कार किया गया है। इन पाँचों पदों का निर्देश गुणवाचक है। इसमें किसी व्यक्तिविशेष का उल्लेख नहीं है । इसी प्रकार 'अरिहन्ते सरणं पवज्जामि' इत्यादि चतुः शरण के तथा मंगलचतुष्टय के जो चार कल्याणभूत पाठ हैं उनमें भी अरिहन्त, सिद्ध, साधु एवं केवलप्रज्ञप्त धर्म इन चार का निर्देश गुणवाचक है, व्यक्तिवाचक नहीं ।
२. तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
— गीता अ. ४, श्लो. ३४.
अर्थात् - ज्ञानी सद्गुरु को प्रणाम करके पूछ करके और उसकी सेवा करके ज्ञान प्राप्त कर । तत्त्वद्रष्टा ज्ञानी तब तुझे ज्ञान का उपदेश देगा ।
३. “मातृदेवो भव ! पितृदेवो भव ! " - तैत्तिरीयोपनिषद् ।
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