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जैनदर्शन
यह सही है कि वीतरागता पर पहुँचने की लम्बी यात्रा में कितने ही साधनों की आवश्यकता होती है और उन्हें अवान्तर साध्य के रूप में बीच-बीच में स्वीकारने की और न्यायमार्ग से प्राप्त करने की आवश्यकता रहती है जिससे कि 'यात्रा' सफल हो; परन्तु यह सर्वदा ध्यान में रखना चाहिए कि अन्ततः वे साधन हैं, न कि अन्तिम साध्य । यदि कोई मनुष्य वीतरागता का अन्तिम आदर्श चूक जाय और जिस का केवल साधन के रूप में ही उपयोग है उसे अन्तिम सत्य - अन्तिम साध्य के रूप में प्रतिष्ठित करके उसके पीछे लग जाय तो वैसा करनेवाला मनुष्य मरा ही पड़ा है । उसका किसी भी तरह निस्तार नहीं हो सकता, फिर वह चाहे जितने हाथ-पैर क्यों न पटके, चाहे जितना द्रव्य क्यों न खर्चे ?
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भाव - पूजा दुष्प्रकृति, खराब स्वभाव और खराब आदत अथवा अपलक्षणों को दूर कर के आत्मविकासरूप सद्गुणों को अपने जीवन मेंजीवनव्यवहार में - आचरण में प्रकट करने की भावना विकसित करने में है । भाव को विकसित करके सदाचारी बनने की ओर प्रेरित करना ही भावपूजा का मुख्य एवं सच्चा तात्पर्य है इसी में उसका साफल्य है ।
जैन परमात्मव्यक्ति के नहीं किन्तु उसके गुणों के पूजकर हैं । परमात्मा में होने योग्य गुण जिस-जिस आत्मा में प्रकट हुए होते हैं उन सबको जैन एकसमानरूप से परमात्मा मानते हैं । इसलिये परमात्मा के गुण ही जैनों का आदर्श है । जैनों के परम पवित्र 'नमोक्कार' अर्थात् 'नमस्कार' (नवकार)
१. प्रत्येक साध्य साधनयोग के अनुसार क्रमशः सधता है । वस्त्र तैयार करने में रूई, सूत आदि अवान्तर कितने ही कार्य सिद्ध करने पड़ते हैं, तब ( साधनयोग के क्रम के अनुसार) कहीं जाकर वस्त्र तैयार होता है ।
२. गुणवान् व्यक्ति भी पूजा जाता है, परन्तु व्यक्ति के रूप में नहीं किन्तु उसके गुणों द्वारा । गुणी के पूजन द्वारा गुणों का पूजन किया जाता है । गुणों का पूजन गुणी के पूजन द्वारा बलाढ्य होता है । गुणों के पूजनरूप से गुणी का जो पूजन किया जाता है वह पूजक में गुणभावना को प्रदीप्त करता है । हक़ीक़त ऐसी है कि गुणों द्वारा गुणी पूजा जाता है और गुणी द्वारा गुण पूजे जाते हैं ।
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