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द्वितीय खण्ड
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तो अकेली द्रव्य-पूजा से योग्य सफलता नहीं मिल सकती । द्रव्य-पूजा प्रभु के प्रतीक की हो सकती हैं, परन्तु भाव- पूजा तो मूर्ति जिसका प्रतीक है उस प्रभु की होती है । भाव का सम्बन्ध प्रभु के गुणों के साथ है, । द्रव्यपूजा थोड़े से समय में पूर्ण हो जाती है, जबकि भाव- पूजा-प्रभुगुणशक्तिभगवद्गुणप्रणिधान के लिये स्थान अथवा काल की कोई मर्यादा नहीं है । उसका तो चाहे जिस स्थान में और चाहे जिस समय लाभ लिया जा सकता है । लौकिक कार्य-व्यवहार के समय भी भक्तजन के हृदय में भक्तिरस बहता ही रहता है, उस समय भी वह इस प्रकार के रसोल्लास के रूप में भगवान् की भाव- पूजा कर ही रहा है । सांसारिक काम-धन्धे करते समय भी जिसकी नीतिमत्ता और सत्य - निष्ठा अबाधिरूप से चालु रहती है वह समय भी उन सद्गुणों के रूप में भगवत्-पूजा ही कर रहा है, भक्तिरस स्मृति पर सदा बहता रहे और उसके फलस्वरूप जीवन का पावित्र्य निरन्तर ज्वलन्त यही सच्चे भक्त की स्थिति होती है ।
भगवद्भक्त मनुष्य कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करनेवाले, विश्वतत्त्वों के ज्ञाता, परमतत्त्व के प्रकाशक और मोक्षमार्ग पर ले जानेवाले वीतरागदेव को उनके (उनके जैसे) गुण प्राप्त हों (अपने आत्मा में प्रकट हो ) इसलिये वन्दन करता है, और जब तक वैसी ( वीतरागता की पूर्ण उज्ज्वल) स्थिति प्राप्त न हो तब तक वह ऐसी प्रार्थना करता रहता है कि 'भवे भवे सदा सदा सतत वीतरागदेव में — उनके सद्गुणों में मेरी भक्ति कायम रहे जिससे किसी भी समय मैं दुर्गुणों में फँसने न पाऊँ, क्योंकि तीनों जगत् में और तीनों काल में भव- भ्रमण से अथवा दुःखचक्र से रक्षण करनेवाला यदि कोई है तो वह एकमात्र वीतरागता का अवलम्बन ही है ।
वीतराग-तत्त्व को अन्तिम ध्येय के रूप में मान्य रखने की आवश्यकता इसलिये है कि वीतराग परमात्मा के स्मरण में सतत निरत रहनेवाला योगी वीतरागता को प्राप्त करता है, जबकि सराग व्यक्ति को अन्तिम ध्येय के रूप में स्वीकार करके उसका ध्यान करनेवाला अपनी सरागता का पोषण करता है और इस प्रकार अपने भव-बन्धन को अधिक कडा बनाता है ।
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