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जैनदर्शन सत्कार्यों की भावना को प्रबुद्ध करके चित्त को सद्वृत्तिशाली बनाता है । भावपूजा का ओजस् जैसे-जैसे खिलता जाता है वैसे-वैसे चित्त की कल्याणकामना विशेष और विशेष मात्रा में विकस्वर होती जाती है । इस प्रकार यह परम श्रेयःसाधक बनती है। श्री हरिभद्राचार्य अपने 'अष्टकप्रकरण' नामक ग्रन्थ के तीसरे अष्टक में कहते हैं
अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमलोभता । गुरुभक्तिस्तपो ज्ञानं सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ।। एभिर्देवाधिदेवाय बहुमानपुरस्सरा ।।
दीयते पालनाद् या तु सा वै शुद्धत्युदाहृता ॥ अर्थात्-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, निर्लोभता, गुरुभक्ति, तप और ज्ञान ये आठ प्रशस्त एवं पवित्र पुष्प हैं । इन गुणों का पालन करने से ये 'पुष्प' देवाधिदेव को चढाए हैं ऐसा माना जा सकता है । इस प्रकार इन पुष्पों को चढाना (इस प्रकार की 'पुष्पपूजा') शुद्ध-पूजा है । यहाँ पर यह जान लेना चाहिए कि इस प्रकार की 'शुद्ध' पूजा के लिये ही भावपूजा है और भाव-पूजा के लिये अनुकूल मानसिक वातावरण के सर्जन के लिये जो उपचारविधि की जाती है वह द्रव्य-पूजा है । वह भाव-पूजा के हेतु उपचारविधि होने से 'उपचार-पूजा' भी कही जा सकती है।
इस पर से यह समझा जा सकता है कि उपचार (द्रव्य) पूजा में इतिश्री न मानकर अथवा उसे मुख्य या प्रधान न समझकर उसका आवश्यकतानुसार विवेकयुक्त उपयोग करके साध्यक्रिया में यथाशक्ति उद्यत रहना चाहिए ।
उपर्युक्त कथनानुसार द्रव्य-पूजा भाव-पूजा के लिये वातावरण उपस्थित करने में निमित्तभूत होती है, परन्तु यदि वास्तविक भाव-पूजा न हो
१. स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः ॥
गीता अ० १८, श्लो० ४६. अर्थात्-मनुष्य अपने कार्यों से अर्थात् कर्तव्यपालन के रूप में उस(प्रभु)की पूजा करके सिद्धि प्राप्त करता है ।
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