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________________ २६६ जैनदर्शन होते हैं । अरे, शास्त्र तो यहाँ तक कहते हैं कि 'निकाचित' कर्म का भी भेद हो सकता है, हाँ वह पवित्रतापूर्ण अत्युत्कट आत्मसाधना से ही शक्य है । कहने का अभिप्राय यह है कि कर्म के भरोसे में रहकर अकर्मण्य बने रहना ठीक नहीं है । हाँ, योग्य प्रयत्न भी जब सफल न हो अथवा प्रयत्न करने की योग्य भूमिका ही न मिले उस समय और उस दशा में कर्म को अभेद्य, दुर्दान्त अथवा दुर्घट समझा जा सकता है । और ऐसी स्थिति में चित्त को प्रशान्त रखने जितना धैर्य धारण करके प्रतिकूल परिस्थिति को सहन कर ही लेना चाहिए । अपने कृत्य का कैसा परिणाम अपने शरीर या मन पर अथवा दूसरे मनुष्यों एवं प्राणियों पर होगा इसका विचार किये बिना अर्थात् परीक्षित या सम्भाव्य कार्यकारणभाव के सम्बन्ध की अवगणना करके अन्धश्रद्धा, गतानुगतिकता, अज्ञानता अथवा लोभ-लालच से की हुई प्रवृत्ति का अभिलषित परिणाम न आने पर अथवा कुछ अनिष्ट दुष्परिणाम आने पर मनुष्य को चाहिए कि उसके लिये वह अपने अज्ञान, अविवेकभाव अथवा अपनी लोभवृत्ति को दोष दे । सम्भाव्य-असम्भाव्य अच्छे-बुरे परिणाम को समझने की बुद्धिरूप विवेक कार्यकारण के सम्बन्ध का विचार किए बिना कुछ काम नहीं करता और जहाँ विवेकबुद्धि का अभाव होता है वहाँ अन्धश्रद्धा, गतानुगतिकता, अज्ञानता या लोभ-लालच अपना अड्डा जमाते ही है । समझने पर भी लोभ आदि दोषवश मनुष्य अनुचित कार्य करता है, परन्तु इसके दुष्परिणाम का भोग उसे होना ही पड़ता है । १. निकाचित (अभेद्य) समझा जानेवाला कर्म भी किस तरह टूट सकता है इसके बारे में उपाध्याय श्री यशोविजयजी अपनी २६वीं द्वात्रिंशिका में कहते हैं कि निकाचितानामपि यः कर्मणां तपसा क्षयः । सोऽभिप्रेत्योत्तमं योगमपूर्वकरणोदयम् ॥२४॥ अर्थात्-निकाचित कर्म का भी तप द्वारा जो क्षय कहा गया है वह उच्च श्रेणी केउच्च भूमिका के योग को लक्ष में रखकर कहा गया है । बाह्य तप अथवा वैसे जिस किसी तप के लिये यह बात नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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