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चतुर्थ खण्ड
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लोग कहते हैं कि दान, पूजा, सेवा आदि कार्य करने से पुण्य प्राप्त होता है और किसी को कष्ट पहुँचाने से अथवा उसकी इच्छा विरुद्ध कार्य करने से पाप बँधता है । परन्तु पुण्य-पाप का निर्णय करने की मुख्य कसौटी ऐसी बाह्य क्रिया नहीं है । क्योंकि किसी को कष्ट पर पहुँचाने पर भी अथवा किसी की इच्छा के विरुद्ध कार्य करने पर भी मनुष्य पुण्य का उपार्जन कर सकता है और दान-पूजादि करने पर भी वह पुण्योपार्जन न करके पाप का उपार्जन कर सकता है। एक परोपकारी चिकित्सक जब किसी पर शस्त्रक्रिया करता है तब उस रोगी को अवश्य कष्ट होता है, हितैषी माता-पिता बेसमझ बालक को पढाने के लिये जब उसकी इच्छा के विरुद्ध प्रयत्न करते हैं तब उसके लड़के को दुःख जैसा लगता है; परन्तु इतने मात्र से वह चिकित्सक अनुचित कार्य करनेवाला नहीं समझा जाता अथवा उस लड़के के माता-पिता दोषी नहीं समझे जाते । इसके विपरीत, जब कोई मनुष्य भोले-भाले लोगों को ठगने के इरादे से अथवा कोई तुच्छ आशय से दान-पूजन आदि क्रिया करता है तब वह पुण्य के बदले पाप ही बाँधता है । अतः पुण्य-पाप के उपार्जन की सच्ची कसौटी केवल ऊपर ऊपर की क्रिया नहीं है, उसकी यथार्थ कसौटी तो कर्ता का आशय है । शुभ आशय से जो कार्य किया जाता है वह पुण्य का निमित्त और बुरे आशय से जो कार्य किया जाता है वह पाप का निमित्त होता है । पाप-पुण्य की इस कसौटी को सब मान्य रखते हैं, क्योंकि 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' यह सिद्धान्त सर्वमान्य है । परन्तु शुभ आशय होने पर भी विचारमूढ मनुष्य की प्रवृति मूर्खतापूर्ण, अनिष्टरूप तथा पापबन्धक हो सकती है । अत: शुभ आशय से किए जानेवाले कार्य में भी सावधानता और विवेकबुद्धि की विशेष आवश्यकता है। उपयोग में [अप्रमत्तभाव में] धर्म माना गया है और 'विवेको दशमोनिधिः' है । इसमें यदि कमी हो तो लाभ के बदले हानि की सम्भावना है।
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