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जैनदर्शन
[८] कर्म के सामान्यतः दो अर्थ होते हैं : एक तो है कोई काम (कर्मकम्म-काम), क्रिया अथवा प्रवृत्ति और दूसरा अर्थ है जीव की क्रिया प्रवृत्ति द्वारा कर्मवर्गणा के जो पुद्गल आकृष्ट होकर उसके साथ चिपक जाते उन पुद्गलों को भी कर्म कहते हैं । जो किया जात है वह कर्म । यह कर्म शब्द की व्युत्पत्ति कर्म शब्द के इन दोनो अर्थों में घटती है । वैसे तो 'कर्मवर्गणा' के पुद्गल लोकाकाश में सर्वत्र भरे हुए हैं, परन्तु पुद्गल जीव की क्रिया-प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट होकर जब जीव के साथ चिपक जातें हैंजीव के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं तभी वे 'कर्म' संज्ञा से अभिहित होते हैं । इस तरह जीव के साथ बद्ध कार्मिक (कर्मरूप से परिणत )पुद्गलों को 'कर्म' कहा जाता है । इसके बारे में विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जाता है कि जीवबद्ध कार्मिक पुद्गलों को 'द्रव्यकर्म' कहते हैं और जीव के रागद्वेषात्मक परिणाम को (भावकर्म) जोव (विभाव दशा में) भावकर्म का कर्ता है, इसी तरह द्रव्यकर्म का भी वह कर्ता है । बीज से अंकुर और अंकुर से पुनः बीज की भाँति भाषकर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से पुनः भावकर्म इस प्रकार इन दोनों का परस्पर कार्यकारण सम्बन्ध है' ।
[९] कर्म-पुद्गल सर्वप्रथम आकर्षित होते हैं और बाद में उनका बन्ध होता है । कर्म- पुद्गलों को आकर्षित करने का कार्य 'योग' (मन-वचन-.
१. जैनेतर दर्शनो में माथा, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार,
दैव, भाग्य आदि शब्द 'कर्म' के स्थान में व्यवहत हैं । पाया, अविद्या, प्रकृति ये तीन शब्द वेदान्तदर्शन में मिलते हैं । 'अपूर्व' शब्द मीमांसकदर्शन का है । 'वासना' बौद्धदर्शन में प्रसिद्ध है। योगदर्शन में भी इस शब्द का प्रयोग मिलता है ! 'आशय' शब्द योग और सांख्यदर्शन में तथा धर्माधर्म, अदृष्ट और संस्कार शब्द न्याय-वैशेषिकदर्शन में प्रचलित हैं। दैव, भाग्य, पुण्य-पाए आदि अनेक शब्द ऐसे हैं जो सब दर्शनशास्त्रों में तथा सामान्य जनता में प्रचलित हैं । जितने दर्शन आत्मवादी हैं और पुनर्जन्म को मानते हैं वे सब कर्म के सिद्धान्त को मान्य रखते हैं । पुनर्जन्म की उत्पत्ति भी इसी से शक्य है जिस पर आत्मा की अमरता टिकी हुई है।
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