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चतुर्थ खण्ड
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शरीर की क्रिया) करता है, अतः उसे 'आस्रव' कहते हैं । उन कर्म - पुद्गलों को आत्मा के साथ चिपका देने का कार्य मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय करते हैं, अतः वे बन्ध के हेतु कहे जाते हैं । इस बन्ध के कार्य में मिथ्यात्व आदि चार के साथ 'योग' तो होता ही है । इसलिये तत्त्वार्थसूत्र के अष्टम अद्याय के आदिम सूत्र में बन्ध के पाँच हेतु गिनाए गए हैं और इसी ग्रन्थ के छठे अध्याय के प्रारम्भ के सूत्र में 'योग' को ही आस्रव कहा है, मिथ्यात्वादि चार को नहीं । इस पर से ज्ञात होता है कि 'योग' आस्त्रव और बन्ध दोनों का हेतु है । इसी प्रकार बन्ध के हेतु मिथ्यात्वादि चार की गणना आस्त्रव मे भी की जा सकती है और वह इस प्रकार-
शास्त्रों में आठ कर्म और उनकी अवान्तर प्रकृतियों के पृथक् पृथक् आस्त्रव बतलाए हैं, उनमें मिथ्यात्व, अविरति कषाय, प्रमाद आदि दोषरूप भिन्न-भिन्न वृत्ति प्रवृत्तियाँ उस उस कर्म के आस्त्रवरूप हैं ऐसा बतलाया है । कर्मपुद्गलों को आकर्षित करनेवाला 'योग' जब मिथ्यात्वादि दोषों से दूषित होता है तब वैसे 'योग' से आकृष्ट कर्म - पुद्गल मिथ्यात्वादि दोषयुक्त योग द्वारा आकर्षित होने से मिथ्यात्वादि को भी 'आस्रव' कह सकते हैं, अर्थात् बन्ध के हेतुभूत मिथ्यात्वादि की गणना आस्त्रव में भी की जा सकती है ।
इस अवलोकन पर से देखा जा सकता कि 'योग' कर्मपुद्गलों को आकर्षित करता है, अतः वह 'आस्रव' रूप से तो प्रसिद्ध है ही, साथ ही उसकी गणना बन्ध-हेतुओं में की गई है अतः वह बन्धहेतु भी है 1 कार्मिक - पुद्गलों को आकर्षित करनेवाले 'योग' मिथ्यात्वादि चिपके हुए हैं, अतः वे आस्त्रव हैं, क्योंकि प्रायः मिथ्यात्व कषाय आदि से युक्त 'योग' कर्म-वर्गणा को आत्मा की ओर आकृष्ट किए रहता है, अन्यथा नहीं । अतः ये मिथ्यात्व आदि भी आस्त्रव हैं । और वे बन्ध- हेतु तो है ही । इसका अर्थ यह हुआ कि 'योग' आस्रव और बन्ध हेतु दोनों हैं और बन्ध--हेतु मिथ्यात्व आदि ' आस्त्रव भी हैं । इस पर से हम देख सकते हैं कि कर्मों को खींचने का और उन्हें आत्मा के साथ चिपका देने का कार्य एक ही 'टोली' करती है । इस प्रकार आस्त्रव और बन्ध का अभेद बतलाया जाता
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