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जैनदर्शन
है । अब कैसा काम करने से कौन से कर्म का बन्ध होता है यह देखें।
ज्ञानी व्यक्ति का अनादर, उसकी ओर प्रतिकूलआचरण, अवज्ञा, कृतघ्न व्यवहार, ज्ञान के साधन पुस्तकादि की ओर असावधानी-अवज्ञा, विद्याभ्यासी के विद्याभ्यास में विघ्न डालना, ज्ञान अथवा ज्ञान के साधन अपने पास होने पर भी चित्त की कलुषितता के कारण दूसरे को देने से इनकार करना, झूठे बहाने बताकर ना करना-ऐसे ऐसे बरताव से तथा आलस्य, प्रमाद, मिथ्या उपदेश से ज्ञानावरण कर्म का बन्ध होता है ।
१. देखो आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश का ७८वाँ श्लोक
कषाया विषया योगाः प्रमादाविरति तथा ।
मिथ्यात्वमातरौद्रे चेत्यशुभं प्रति हेतवः ॥ अर्थात्-कषाय, विषय, योग, प्रमाद, अविरति, मिथ्यात्व और आर्त व रौद्र ध्यान अशुभ कर्म के हेतु (आस्रव) हैं । इस श्लोक पर की अपनी टीका में वे स्वयं आस्रव-बन्ध के बारे में प्रश्नोत्तरपूर्वक चर्चा करते हैं । प्रश्न इस प्रकार का हैइन (कषायादि) को बन्ध का हेतु कहा गया है, तो फिर आस्रव की भावना में इन बन्धहेतुओं के कथन का क्या प्रयोजन है ? इस प्रश्न और इसके उत्तर की चर्चावाला मूल लेख ही यहाँ पर हम उद्धृत करते
"नन्वेते बन्धं प्रति हेतुत्वेनोक्ताः, यद् वाचकमुख्या:-"मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः' इति । तत् किमावभावनायां बन्धहेतूनामेतेषामभिधानम् ? सत्यम्, आश्रवभावनेव बन्धभावनापि न महद्भिर्भावनात्वेनोक्ता, आश्रवभावनयैव गतार्थत्वात् । आश्रवेण ह्युपात्ताः कर्मपुद्गला आत्मना सम्बध्यमाना बन्ध इत्यभिधीयते । यदाह-सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते, स बन्ध;' इति । ततश्च बन्धास्रवयोर्भेदो न विवक्षितः । ननु कर्मपुद्गलः सह नीरक्षीरन्यायेनाऽऽत्मनः सम्बन्धो बन्ध उच्यते तत्कथमास्रव एव बन्धः ? युक्तमेतत्, तथाप्यास्रवेणानुपात्तानां कर्मपुद्गलानां कथं बन्धः स्यात् ? इत्यतोऽपि कर्म-पुद्गलाऽऽदानहेतावास्रवे बन्धहेतूनामभिधानमदुष्टम् । ननु तथापि बन्धहेतूनां पाठो. निरर्थकः । नैवम्, बन्धास्रवयो रेकत्वेनोक्त त्वाद् आस्रवहेतुनामेवाऽयं पाठ इति सर्वमवदातम् ।"
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