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________________ चतुर्थखण्ड २७१ और दर्शन, दर्शनवान् तथा दर्शन के साधन के साथ इसी प्रकार के बरताव से दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है । अनुकम्पा, सेवा, क्षमा, दया दान, संयम से सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है । बाल - तप से भी उसके प्रमाण के अनुसार सातावेदनीय का बन्ध होता है । दूसरे का वध करने से अथवा दूसरे को शोक - सन्ताप - दुःख देने से असातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है । स्वयं भी शोक सन्ताप- दुःखग्रस्त रहने से अथवा दुर्ध्यान से दूषित आत्महत्या करने से भी इस कर्म का बन्ध होता है । असन्मार्ग का उपदेश, सन्मार्ग का अपलाप और सन्त साधु - सज्जन एवं कल्याणसाधन के मार्गों की ओर प्रतिकूल बरताव करने से दर्शन - मोहनीय कर्म का बन्ध होता है । कषायोदयजन्य तीव्र अशुभ परिणाम से चारित्रमोहनीय कर्म बँधा है। महारम्भ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रियवध व रौद्रपरिणाम से नारक आयुष्य का बन्ध होता है । मायावी भाव से तिर्यंच आयुष्य का बन्ध होता है । अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह और मृदुता ऋजुता के गुणों से मनुष्य आयुष्य का बन्ध होता है । संयम यदि मध्यम कक्षा का अथवा रागयुक्त हो, तपस्विता यदि बाल-कक्षा की हो तो उस के प्रमाण में देव (स्वर्ग) का आयुष्य बँधता है । तप - संयम की साधना के अनुसार देवायुष्य का बन्ध होता है । ऋजुता, मृदुता, सच्चाई और मैत्री-मिलाप करा देने के प्रयत्न सेइस प्रकार के सौजन्य से शुभ नामकर्म का बन्ध होता है । और इससे विरुद्ध दुर्जनता धारण करने से, कुटिलता, शठता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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