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________________ २७२ जैनदर्शन लुच्चाई, ठगाई, विश्वासघात आदि से अशुभ नामकर्म का बन्ध होता है । गुणग्राहिता, निरभिमानता, विनीतता आदि गुणों से उच्च गोत्र कर्म का बन्ध होता है । परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, दूसरे के विद्यमान गुणों का आच्छादन और सम्भव असम्भव दोषों का उदघाटन, अपने दोषों का आच्छादान और अविद्यमान गुणों का उद्घाटन तथा जाति - कुलादि के अभिमान से नीच गोत्रकर्म का बन्ध होता है । किसी को दान करने में किसी के लाभ में अथवा भोगोपभोग आदि में बाधा उपस्थित करने से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है । कर्म - प्रकृतियों के इन आस्त्रवों का ( बन्धहेतुओं का ) यह स्थूल उल्लेख मात्र दिशासूचक है। यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अमुक कर्मप्रकृति के जो आस्त्रव कहे हैं, वे उस प्रकृति के अतिरिक्त दूसरी कर्मप्रकृति के बन्धक हो सकते हैं या नहीं ? यदि इसका उत्तर 'हाँ' है तो प्रत्येक प्रकृति के भिन्न-भिन्न आस्त्रवों का कथन निरर्थक है, और यदि इसका उत्तर 'ना' है अर्थात् एक प्रकृति के गिनाए गए आस्त्रव उसी प्रकृति के बन्धक हैं, दूसरी प्रकृतियों के नहीं, तो शास्त्र का विरोध आता है । शास्त्र का सिद्धान्त है कि सामान्यतः आयुष्य कर्म को छोड़कर अन्य सातों कर्म -- प्रकृतियों का बन्ध एक साथ होता हैं । इस नियम के अनुसार जब ज्ञानावरण कर्म का बन्ध होता हो तब वेदनीय आदि छह प्रकृतियों का भी बन्ध होता है, ऐसा मानना पड़ेगा । आस्त्रव तो एक एक कर्म प्रकृति का एक समय में एक होता है और बन्ध तो उस प्रकृति के अतिरिक्त दूसरी अविरोधी प्रकृतियों का भी उस समय होता है । अतः अमुक आस्त्रव अमुक कर्म प्रकृति का ही बन्धक हैं इस प्रकार का निरूपण शास्त्रनियम से बाधित होता है । इसलिये प्रत्येक प्रत्येक प्रकृति के भिन्न-भिन्न आस्त्रवों का जो वर्गीकरण किया है उसका क्या अभिप्राय है ? इसका खुलासा तो यही है कि प्रत्येक प्रकृति के गिनाए गए उपर्युक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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