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चतुर्थ खण्ड
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आस्त्रव उस उस कर्म के प्रकृति के अनुभाव (रस) बन्ध में ही निमित्त हैं और शास्त्रों में एक साथ अनेक कर्मप्रकृतियों के बन्ध का जो उल्लेख है वह प्रदेश- -बन्ध की अपेक्षा से है । इस प्रकार दोनों में किसी प्रकार की असंगतता नहीं रहती ।
आस्त्रवों का विभाग अनुभाव की दृष्टि से किया गया है ऐसा उपर्युक्त उल्लेख भी मुख्यता की अपेक्षा से समझने का है; अर्थात् जिस प्रकृति के जो आस्त्रव गिनाए हैं उन आस्त्रवों के सेवन के समय उस कर्मप्रकृति का अनुभावबन्ध मुख्यरूप से होता है और उस समय बँधनेवाली इतर प्रकृतियों के अनुभाव का बन्ध गौणरूप से होता है । यह तो कैसे हो सकता है कि एक समय में एक ही कर्मप्रकृति का अनुभाव-बन्ध तो हो और दूसरी प्रकृतियों का न हो ? क्योकि जिस समय जितनी कर्मप्रकृतियों का प्रदेशबन्ध योग द्वारा होता है उस समय कषाय द्वारा उतनी ही कर्म - प्रकृतियों का अनुभावबन्ध भी होता है । अतः मुख्य रूप से होनेवाले अनुभावबन्ध की अपेक्षा से प्रस्तुत आस्त्रव विभाग का समर्थन शक्य मालूम होता है । शुभअशुभ कर्मबन्ध के सदाचार - अनाचाररूप मार्गों का नामनिर्देश करके कर्म प्रकृतियों का बन्ध बताने से प्राणी को स्पष्ट समझ में आ जाय और सदाचार को ग्रहण करने का तथा दुराचार को त्यागने का भाव उनमें जगे यही प्रयोजन आस्त्रव - विभाग के विवेचन के पीछे है, यह स्पष्ट प्रतीत होता है ।
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( आयुष्य कर्म के बारे में )
आयुष्य कर्म के चार विभाग पहले बतलाए जा चुके हैं : देव का आयुष्य, मनुष्य का आयुष्य, तिर्यंच का आयुष्य और नारक का आयुष्य ।
जिस प्रकार घड़ी को चाबी देने के बाद, यदि बीच में कोई विघ्न उपस्थित न हो तो, नियत समय तक चलने के बाद स्वतः बन्द हो जाती है उसी प्रकार आयुष्य कर्म द्वारा इस जीव का मनुष्य, तिर्यंच आदि भवों में स्थूल शरीर के साथ का सम्बन्ध यदि बीच में कोई विघ्न उपस्थित न हो तो नियत काल तक जारी रहता है और कालमर्यादा पूर्ण होने पर जीव
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