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________________ २७४ जैनदर्शन उस शरीर में क्षणभर भी नहीं रहता । जब यह शरीररूपी घड़ी विष, भय, शस्त्राघात, संक्लेश-वेदना आदि के कारण नियत समय से पहले ही बिगड़ जाती है तब इस प्रकार के आघात - प्रहार के मृत्युरूप परिणाम को 'अकाल मरण' कहते हैं । एक तरफ से क्रमशः जलनेवाली रस्सी को जलने में देर लगती है, परन्तु उसकी गेंडुली बना कर यदि उसे आग लगाई जाय तो वह शीघ्र जल जाती है; भीगे कपड़े की तरह लगाकर यदि सूखने के लिये रखा जाय तो उसे सूखने में देर लगेगी, परन्तु उसे फैलाकर यदि सुखाया जाय तो वह जल्दी ही सूख जायगा । इसी प्रकार यदि आयुष्य-दल क्रमशः भुगता जाय तो अपने समय पर वह पूर्ण होगा परन्तु शस्त्र; जल, विष, अग्नि आदि किसी उपद्रव से यदि यह समूचा दल एक साथ ही भुगत लिया जाय तो तुरन्त ही मृत्यु होती है । सत्तर वर्ष के आयुष्य के दल क्रमशः भुगतने पर सत्तर वर्ष पर मृत्यु होती है, इन दलों का क्रमशः उपभोग होने के बाद पचीस वर्ष की आयु में यदि कोई घातक दुर्घटना हो अथवा कोई विघातक प्रयोग किया जाय और इससे अवशिष्ट ४५ वर्ष के आयुष्यदल एक साथ ही दो चार मिनट में अथवा दो-चार घड़ी अथवा दो-चार प्रहर जैसे अल्प समय में भुगत लिये जाएँ तो उसी समय मृत्यु होती है । एक हजार रुपयों की पूँजी में से यदि प्रतिदिन एक-एक रुपया खर्च किया जाय तो वह पूंजी हजार दिन तक चलेगी, परन्तु एक ही दिन में अथवा एक ही घंटे में वह पूँजी या बाकी बची हुई रकम खर्च कर दी जाय तो निर्धनता तुरन्त ही आ जायगी । पूर्वजन्म में यदि आयुष्य का बन्ध शिथिल हुआ हो तो किसी घातक उपद्रव का निमित्त मिलने पर उसकी बन्धकाल की कालमर्यादा कम हो जाती है और अपनी नियत काल - मर्यादा पूर्ण होने से पूर्व ही जल्दी ही वह भुगता जा कर खत्म हो जाता है । परन्तु यदि उसका (आयुष्य का) गाढ़ बन्ध हुआ हो तो विनाशक निमित्त मिलने पर भी बन्ध-काल की काल - मर्यादा कम नहीं होती, अर्थात् अपनी नियत कालमर्यादा से पहले आयुष्य समाप्त नहीं होता । इस पर से आयुष्य के अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय ऐसे दो भेद होते हैं । निमित्त मिलने पर जो आयुष्य शीघ्र भुगत लिया जाता है वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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