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चतुर्थ खण्ड
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अपवर्तनीय कहलाता है; अर्थात् घातक उपद्रव के कारण अवशिष्ट आयुष्य, जो अनेक वर्षों तक भुगतने योग्य था, उसे अत्यन्त अल्प समय में भुगत लेना आयुष्य का अपवर्तन है, और इस तरह जिस आयुष्य का अपवर्तन होता है उसे 'अपवर्तनीय कहते हैं । इस अपवर्तन का ही दूसरा नाम 'अकाल मृत्यु' है । और जो आयुष्य किसी भी निमित्त के कारण से समेट न जाकर अपनी नियत काल - मर्यादा तक बराबर भुगता जाता है वह 'अनपवर्तनीय कहलाता है ।
जीव शाश्वत, सनातन, नित्य तत्त्व है । उसका न तो जन्म[ उत्पत्ति ] है और न मृत्यु [विनाश ] । ऐसा होने पर भी सकर्मक दशा में किसी भी योनि में स्थूल शरीर धारण करके प्रकट होने को हम 'जन्म' और उसके स्थूल शरीर के साथ के वियोग को 'मृत्यु' कहते हैं ।
उपर कहां उस तरह अकाल मृत्यु द्वारा आयुष्य के नियत काल में कमी तो हो सकती है, परन्तु किसी भी प्रकार का प्रयत्न करने पर भी नियत आयुष्य-काल में अभिवृद्धि नहीं होती । मोहनीय कर्म के नेतृत्व के नीचे इस भव में ही आगामी भव के आयुष्य का बन्ध हो जाता है । अतः जब तक मोहनीय कर्म का प्रभाव चालु रहता है तब तक इस प्रकार की भवोभव की शृंखला लम्बी होती जाती है- भवभ्रमण चालु ही रहता है ।
[ ११ ]
जैन दर्शन में 'कर्म' क्रिया-प्रवृत्ति का संस्कार मात्र नहीं है, वह द्रव्यभूत वस्तु है । पहले अनेक बार कहा जा चुका है कि जीव की क्रियाप्रवृत्ति [शारीरिक, वाचिक, मानसिक], जिसे योग कहते हैं, उससे कर्म के पुद्गल आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं और कषाय ( राग-द्वेष) के बल से आत्मा के साथ चिपक जाते हैं। जीव में राग-द्वेष की वासना अनादिकाल से है और शरीर-धारण भी अनादि काल से है; अर्थात् अनादिकाल से कर्म के आकर्षण एवं बन्धन के चक्र में फँसा हुआ है । इस चक्र का नाम ही संसारचक्र है । इस तरह कर्म के सम्बन्ध से जीव संसार की विविध योनियों में (गतियों में) परिभ्रमण कर रहा है ।
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