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जैनदर्शन कर्म के सम्पूर्ण बन्धनों से जब वह छूट जाता है तब वह 'मुक्त' कहलाता है । इस प्रकार की मुक्ति अन्तिम और पूर्ण मुक्ति है । कर्मदल के अनन्त विस्तार में मोह का-राग-द्वेष-मोह का काम, क्रोध, मद, माया, लोभरूप का गिरोह का प्रमुख और अग्रिम आधिपत्य है । भवचक्र का मुख्य आधार इन पर है। ये सब दोषों के नायक हैं । सम्पूर्ण कर्मतन्त्र के ऊपर इनका अप्रगामी प्रभुत्व और नेतृत्व है । यदि इनसे मुक्त हुआ जाय तो समग्र कर्मचक्र के फंदे से मुक्ति मिली ही समझो । इसीलिये कहा है कि 'कषाय-मुक्तिः किल मुक्तिरेव' अर्थात् कषायों से मुक्त होने में ही मुक्ति है ।
संसार के नानाविध प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ है । उसके पास विवेक और बुद्धि हैं । वह जब अपनी विवेक-बुद्धि का सदुपयोग करता है और सदाचरण के सन्मार्ग पर चलता है तब उसके कर्मबन्ध के बलों की कटुता कम होती है और मिष्टता में अभिवृद्धि होती है । जीव का अपना चैतन्यबल जब विशिष्ट रूप से पुरूषार्थशील बनता है तब उसके पुराने बँधे हुए कर्म झडने लगते हैं और साथ ही साथ नए कर्मों का चिपकना उत्तरोत्तर कम होता जाता है । जीव की यह परिस्थिति उसकी मोक्ष तरफ की प्रगति है ।
संसारवर्ती जीव क्रियारहित नहीं होता । दूसरी कोई नहीं तो मानसिक क्रिया तो होती ही रहती है । अतः किसी भी प्रवृत्ति अथवा क्रिया के कारण उसे कर्म का बँध होने का ही । परन्तु जो व्यक्ति विवेकबुद्धि के साथ सदाचरण के उज्जवल मार्ग पर चलता है ऊसे क्रियासुलभ कर्मबन्ध से डरने की आवश्यकता ही नहीं है,क्योंकि उसकी इस प्रकार की विकासगामी जीवनचर्या के समय जो कर्म बँधेगे वे कटुफलदायक नहीं होने के । शुभ जीवनचर्या के समय अधिकांशत: सत्कर्मों का (पुण्य कर्मों का) ही संचय होने का और साथ ही उच्चनिर्जरा रूप पुण्य भी संचित होता । जीवन की यह प्रक्रिया सुखदायक और साथ ही आत्मकल्याण की साधना में उपकारक भी है ।
मनुष्य का कार्य तो बस इतना ही है कि वह अपनी बुद्धि को शुद्ध रखे और सत्कर्मपरायण रह कर आत्म-कल्याण के सन्मार्ग से चलित न हो । इतना वह ध्यान में रखे तो बस है । इसमें समग्र दुःखों और तज्जनक कर्मों
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