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चतुर्थ खण्ड
२६५ के नियम को मान देते हुए, हम शक्य उतना लाभ उठाना चाहते हैं ।
किसी असहाय अथवा निराधार मनुष्य पर यदि कोई विपत्ति आ पड़े अथवा उस पर अन्याय गुजरता हो तो उस समय उसके पूर्वभव का दोष न निकाल कर उसको सहायता के लिये अविलम्ब दौड जाना ही मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। किसी को दुःख से आक्रान्त देख कर उसका उद्धार करने का प्रयल न करके उसे उसके भाग्य पर छोड़ देना वस्तुतः निर्दयता है, पाप है । धर्मशास्त्र अथवा कर्मशास्त्र की उद्घोषणा है कि कर्मवाद के आधार पर हाथ जोड़ कर बैठे रहने के बदले कर्म को-कर्म के प्रभाव को विध्वस्त करने के लिये यत्नशील होना चाहिए । जब से मनुष्य गर्भ में आता है, जन्म लेता है तब से लेकर जीवनपर्यन्त वह दूसरे के सहयोग एवं सहाय पर ही जीता है । इस तरह मानवजाति एक कुटुम्ब-परिवार जैसी है । अतः परस्पर मानवीय स्नेह के साथ मिल-जुलकर रहने में और एक-दूसरे को मदद करने में ही उसकी सुख-शान्ति रही हुई है । इसी में उसका उदय एवं विकास है । निपट स्वार्थी बन कर और अपना जो हो उसे पकड़ कर बैठे रहना, दूसरों की ओर दुर्लक्ष करना, निष्ठुरता रखना-यह आध्यात्मिक शासन में अपराध है।
जन्मान्तरवाद अथवा कर्मवाट् वस्तुतः निरूधमवाद अथवा आलस्यवाद नहीं है, किन्तु वह तो योग्य पुरुषार्थ, उद्यम और प्रगतिगामी प्रयत्न करने का निर्देश करनेवाला उपयोगी वाद है । वह तो स्पष्ट कहता है कि योग्य पुरुषार्थ के द्वारा कर्म के आवरणों को हरा कर मनुष्य को आगे प्रगति करनी चाहिए और प्रगति की दिशा में आगे बढ़ते-बढ़ते पूर्ण मोक्ष प्राप्त करना चाहिए । कर्मवाद के 'कर्म' का कार्यक्षेत्र तो जन्मान्तर का अनुसन्धान करना है, परन्तु यदि वह सुधरा हुआ न हो तो उसे सुधारने के लिये उद्यम करने का तथा अनिष्ट कर्म या अनिष्ट कर्मोदय में परिवर्तन लाने का मनुष्य के हाथ में अवकाश भी है, ऐसा कर्मशास्त्र का कथन है !
यह हमें ध्यान में रखना चाहिए कि जीव अपनी क्रियाद्वारा कर्म का बन्ध करता है और अपनी क्रिया से ही उस बन्ध को भी तोड़ सकता है । सभी पूर्व कर्म अभेद्य नहीं होतें । बहुत से कर्म योग्य प्रयत्नों द्वारा भेद्य भी
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