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________________ २६४ जैनदर्शन अनियमित बन करके, अपथ्य का सेवन करके शरीर को लम्बे समय तक भूखा रखकर अथवा शरीर के लिये आवश्यक पोषक तत्त्व भोजन द्वारा न लेकर आरोग्य खोना और शक्तिहीन बनना, जुआ अथवा सट्टे के दुर्व्यसन में फँसकर पैसे बरबाद करके दरिद्र बनना, भोगविलासिता के कारण अथवा कुरूढिवश आमदनी की अपेक्षा खर्च अधिक करके कर्जदार बनना, आलस अथवा सुखचैन में पड़कर अपनी पढ़ाई-लिखाई को बराबर पक्का न करके परीक्षा में अनुत्तीर्ण होना, शारीरिक रोग की कुशल वैद्य अथवा डाक्टर के पास चिकित्सा न करा के भूत-प्रेत आदि के वहम में पड़कर रोगी का जीवन भय में डाल देना और फिर इन सब का दोष सिर्फ 'पूर्वकर्म' के मत्थे मढ देना वस्तुतः बौद्धिक जड़ता ही सूचित करता है । इस प्रकार के दोषों का आरोपण अपने मूर्खतापूर्ण व्यवहार अथवा अपनी विचारहीनता पर करना चाहिए और उसमें से योग्य बोध लेना चाहिए । कर्म के सुगुप्त एवं अगोचर 'कारखाने' की सुगूढ क्रिया की हमें कुछ भी जानकारी नहीं है, अतः हमारे हाथों में केवल विवेकयुक्तक उद्यम करना ही रहता है । फिर चाहे वह उद्यम अपने ऊपर अथवा दूसरे किसी के ऊपर आई हुई आपत्ति दूर करने के लिये हो अथवा वैयक्ति या सामाजिक उन्नति सिद्ध करने के लिये हो । ऐसे उद्यम का फल दिखाई देने पर मनुष्य को न तो फूलना चाहिए और न दिखाई देने पर नहीं उद्विग्न ही होना चाहिए । इस तरह उद्यम करने में हम कर्म के नियम का उल्लंघन करते हों ऐसा नहीं है, परन्तु उसके कायदे-कानून का सन्मान करके आपत्ति हटाने का और उन्नति साधने का हम लाभ उठाना चाहते हैं । जिस तरह नदी की बाढ़ से गाँव डूबते हों तो नहरें आदि खुदवाकर पानी को दूसरे रास्ते से ले जाने की योजना करने में प्रकृति के किसी नियम का भंग नहीं होता, अपितु गाँव की रक्षा के लिये उद्यम करके प्रकृति के ही नियम का लाभ उठाते हैं, उसी प्रकार आपत्ति दूर करने के लिये अथवा उत्कर्ष साधने के लिये उद्यम करके, कर्म १. अपनी शक्ति के अनुसार किसी उदात्त हेतु के लिये प्रसन्नतापूर्वक यदि उपवास किया जाय अथवा किसी दुर्दान्त रोग को दूर करने के लिये निष्णात के परामर्श के अनुसार अमुक समय के लिये विधिपूर्वक अशनत्याग किया जाय तो वह दूसरी बात है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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