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चतुर्थ खण्ड
२६३ सदाचारी बनने के लिये प्रेरित करता है । यह सदाचार की भावना लोकव्यवस्था तथा समाज-जीवन के स्वास्थ्य के लिये भी अत्यन्त आवश्यक है ।
[६] मनुष्य जब रोगी होता है, पैसा गँवाता है अथवा दूसरी ऐसी किसी आपत्ति में फँसता है तब वह अपने कर्म को दोष देता है । पूर्वजन्म के कर्म के सीधे प्रभाव के कारण ही यदि ऐसी स्थिति पैदा हुई हो तो इस तरह कहना उचित है । परन्तु ऐसे समय भी उस कष्ट के निवारण के लिये योग्य प्रयत्न तो करना ही चाहिए और वैसा करने पर भी यदि वह विपत्ति दूर न हो तो फिर मनुष्य के लिये यही उचित है कि बिना दुर्ध्यान किए हिम्मत और धीरज के साथ वह उस दुःख को सह ले । विपत्ति के समय उसे दूर करने के लिये यदि यथायोग्य प्रयत्न न किया जाये और ऐसी स्थिति में जो दुःख सहन करना पड़े तो उसके लिये मनुष्य का प्रमाद अथवा उसकी अकर्मण्यता उत्तरदायी हैं । इसके लिये केवल अपने पूर्वकर्मों को दोष देकर बैठे रहना समझदारी का काम नहीं समझा जायगा । इस जन्म के हमारे कार्यों अथवा आचरणों के कारण यदि हम पर शारीरिक, आर्थिक अथवा किसी दूसरे प्रकार की आपत्ति आए तो उस समय सबको अपने 'पूर्वकर्म को दोष देना तो आता है, परन्तु जिन कृत्यों के कारण अथवा जिस प्रकार के बरताव के परिणामस्वरूप हमें ऐसी स्थिति प्राप्त हुई है उन कृत्यों और वैसे कार्यों अथवा वर्तन-व्यवहार के लिये वास्तविक रूप से पश्चाताप करके उन्हें पुनः न करने का निश्चय करना चाहिए । आहार-विहार में असावधान अथवा
बात भगवतीसूत्र के अधोलिखित उल्लेख पर से ज्ञात होती है।
'परलोअकडा कम्मा इहलोए वेइज्जति,
इहलोअकडा कम्मा इहलोए वेइज्जति ।' योगदर्शन का
'क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ।' यह (२-१२) सूत्र भी यही बात कहता है ।
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