________________
२६२
जैनदर्शन [५] भाग्य अज्ञेय होने से मनुष्य के हाथ में तो उद्यम करना ही बाकी रहता है । जिस प्रकार खोदने पर जमीन में यदि पानी हो तो निकलता है, उसी प्रकार यदि भाग्य में हो तो उद्यम द्वारा उपलब्ध होता है । सद्बुद्धि की पवित्र रोशनी से युक्त प्रयत्नशीलता मनुष्य की वर्तमान दुर्दशा को नष्ट कर उसके लिये सुख के द्वार खोल देती है । इसी तरह वह अशुभ कर्मों के भावि आक्रमणों पर भी बराबर प्रत्याक्रमण का कार्य कर सकती है। यह उद्यम की महिमा है । मतलब यह है कि कर्मवाद के नाम पर निर्बल या निराश न होकर और आत्मा के सामर्थ्य की सर्वोपरि महत्ता को ध्यान में रख कर मनुष्य को यथाशक्य पुरुषार्थशील बनना चाहिए । आया हुआ दुःख किसी तरह दूर न हो और वह भोगना ही पड़े तो कायरता के साथ रोते-रोते भोग कर नए अशुभ कर्मो का उपार्जन करना इसकी अपेक्षा प्रशस्त समभाव से ही सह लेने में मनुष्य की सच्ची समझदारी और मर्दानगी है । ऐसे समय में मन को स्वस्थ रखने का बल कर्मवाद देता है; क्योंकि वह सूचित करता है कि अवश्यम्भावी कर्म किसी को नहीं छोड़ता । बड़े से बड़ा व्यक्ति भी उसके फलविपाक में से छूट नहीं सका है। हमें यह जान लेना चाहिए कि दुःख और कष्ट स्वतः नहीं आते । हमारे बोए हुए ही वे उगते हैं । अतः उन्हें दूर करने का यथाशक्य प्रयत्न करने पर भी जितनी मात्रा में वे सहने पड़े, बराबर शूरतापूर्वक (आध्यात्मिक वीरता के साथ) हम-सह लें। इस प्रकार कष्ट सहन करने से नए दुःखद कर्म नहीं बँध पाते । और साथ ही उतना बोझ कम हो जाता है । जीवन प्रवाह शुभ एवं निष्पाप रुप से बहता रखने से नए अशुभ कर्म बंधने नहीं पाते । इसका परिणाम यह होता है कि जीवनप्रवाह उत्तरोत्तर सुखी एवं उज्ज्वल होता जाता है । यह तो स्पष्ट ही है कि अनीति, विश्वासघात अथवा दुराचरण से खराब कर्म बँधने का (बुरे भाग्य के निर्माण का) और सच्चाई, सेवा, संयम के सद्गुणों के पालन से शुभ कर्म बँधने का (सद्भाग्य के निर्माण का) सिद्धान्त' (अर्थात् कर्मवाद्) मनुष्य को
१. पूर्वजन्म में किए हुए कर्मों का फलोपभोग जिस प्रकार हम इस जन्म में करते हैं
उसी प्रकार इस जन्म में किए हुए कर्म भी इसी जन्म में फल दे सकते हैं । यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org