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________________ चतुर्थ खण्ड २६१ परन्तु यदि कोई तुम्हें मारने के लिये आए और तुम उसका प्रतीकार करो तो तुम वैरभाव रखते हो ऐसा कोई नहीं कहेगा । दिए हुए पैसे वापिस न मिलने पर यदि तुम दावा करो तो तुमने वैर लिया ऐसा कोई नही कह सकता । कोई तुम्हारी चीज उठाकर ले जाय और उसकी रक्षा के लिये तुम प्रयत्न करो तो तुम उसके विरुद्ध वैरभाव रखते हो ऐसा कौन कह सकता है ? ऐसे अवसरों पर तुम शेठ, चोर, ठग, झुठे, लुच्चे, अथवा गुण्डे का योग्य सामना करो तो उसमें कुछ भी बुरा नहीं है--धर्मशास्त्र की दृष्टि से भी । कर्म के उदय में तथा कर्म के उदय को दुर्बल बनाने में भी योग्य उद्यम को अवकाश है, ऐसा कर्मशास्त्र मानता है । जीवनयात्रा में योग्य उद्यम, प्रयत्न, पुरुषार्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है ऐसा वह असन्दिग्धरूप से मानता है और जोरों से इसका समर्थन भी करता है । गई हुई-खोई हुई वस्तु प्राप्त करने में उद्यम उपयोगी हो सकता है । बीमार पड़ने पर हम दवाई करते ही है। हम सब सुख एवं सुख के साधन प्राप्त करने के लिये तथा दुःख एवं दुःख के मार्ग से दूर रहने के लिये अथवा आए हुए दुःख को दूर करने के लिये सर्वदा प्रयत्न करते ही रहते हैं । समग्र विश्व की ऐसी ही प्रवृत्ति है । स्वरक्षा, पररक्षा, न्याय की प्रतिष्ठा के लिये योग्य प्रतीकार के कार्य वैरवृत्ति से किए जाते हैं, ऐसा कभी नहीं कहा जा सकता । श्रीरामचन्द्रजी द्वारा रावण का किया गया सामना न्याय था । कोई डाकू चीज तुम्हारी कोई चीज उठा जाय और तुम कायर बन कर बैठे रहो, उसकी ओर आँखें फाडकर देखते रहो, मन ही मन जलते रहो तो यह बुजदिली है । अवश्य, तत्कालीन परिस्थिति का नाप निकालना आवश्यक है और तदनुसार उचित प्रयत्न करना ही योग्य समझा जायेगा । क्योंकि-- 'अल्पस्य हेतोर्बहु हातुमिच्छन् विचारमूढः प्रतिभाति लोके । अर्थात्-थोड़े के लिये बहुत खोने की इच्छा रखने वाला मनुष्य विचारमूढ ही है। १. कालिदास के रघुवंश के दूसरे सर्ग के ४७वें श्लोक का उत्तरार्ध-स्थानपूर्ति के लिये अन्तिम दो अक्षर दूसरे रखकर तथा 'सि' के स्थान पर 'ति' लगाकर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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