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जैनदर्शन
[४] संसारवर्ती जीव की किसी भी जीवनघटना के पीछे सामान्यतः पूर्वकर्म का कारण रहा हुआ है । अतः जब कोई भौतिक, शारीरिक या आर्थिक आपत्ति आए तब उसके पीछे पूर्वकर्म का बल कार्य करता ही है । ऐसा होने पर भी इस प्रकार की आपत्ति को जानबूझ कर लानेवाला मनुष्य ऐसी आपत्ति लाने के अपने अपराध से बच नहीं सकता । ऐसे अपराध के लिये उसे वहाँ पर सजा मिले या न मिले, परन्तु प्रकृति की (कार्मिक शासन की) सजा से वह बच नहीं सकता ।
किसी मनुष्य की हत्या में उस मरनेवाले का अथवा किसी को लूट लेने में उस लुटे जानेवाले का पूर्वकृत कर्म तो काम करता ही है, तो भी हत्या करनेवाला अथवा लूटनेवाला हत्या अथवा लूट के अपराध के लिये निःशंक उत्तरदायी है। ऐसे अपराधी जिस प्रकार यहाँ पर दण्ड के पात्र हैं उसी प्रकार कुदरत (कर्म) की सजा भी उन्हें मिलती है । ऐसे खूनी अथवा लुटेरे मरनेवाले या लुटे जानेवाले के भाग्य का कारण दिखाकर अपनी सफाई नहीं दे सकते । धार्मिक सिद्धान्त की दृष्टि से अथवा न्यायशास्त्र के कानून की दृष्टि से भी इस तरह उनका बचाव नहीं हो सकता । इस प्रकार मरनेवाले अथवा लुटे जाने वाले के भाग्य का कारण दिखाना कितना ही वास्तविक क्यों न हो फिर भी इन खूनी और लुटेरे के पक्ष में तो ऐसा कहना वस्तुतः पूरा--औद्वत्य ही है। ऐसी उद्दण्डता कुछ काम नहीं आती और उन्हें कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है !
यहाँ पर हमें यह समझ लेना भी उपयुक्त होगा कि अपराध अपराध में फर्क होता है । जो अपराध तुच्छ एवं सामान्य प्रकार का हो अथवा जिसके विरुद्ध योग्य प्रतीकार की शक्यता न हो उस अपराध के बारे में मन में वैरवृत्ति प्रज्वलित रखने से कोई लाभ नहीं है । पुराने वैरभाव को निरर्थक याद करके विरोधवृत्ति अथवा कषायभाव का विष पुनः जगाने में कोई सार नहीं है । इस लिये विवेकबुद्धि को जागरित करके उस अपराधी की और वैरवृत्ति न रखकर उस समय कर्मसंस्कार के बल का (कर्मवाद के सिद्धान्त का ) विचार करना उपयुक्त है । ऐसे समय इस प्रकार का विचार करके समभाव धारण करना उपयोगी और हितावह है ।
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