________________
चतुर्थ खण्ड
२५९ __[३] समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपना भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक हित साधने की स्वाधीनता होनी चाहिए, परन्तु इसके साथ ही उसे सामाजिक नीति-न्याय के नियमों के बन्धन भी मान्य रखने चाहिए । जो सामाजिक रूढियाँ न्याय एवं नीति के अनुकूल हों उनका पालन सामाजिक सुव्यवस्था के लिये आवश्यक है । परन्तु जो सामाजिक रूढियाँ अज्ञानजनित एवं विवेकहीन हों, अपने उत्पत्तिकाल में चाहे जिस परिस्थिति में उत्पन्न हुई हों पर वर्तमान काल में अनुपयोगी, असंगत एवं हानिकारक हों-कुरूढियों में गिनी जा सके ऐसी हों, और जिन रूढियों को निकाल देने से सामाजिक व्यक्तियों के सुख में अभिवृद्धि होती हो अथवा कुछ दुःख तो कम होते ही हों, फिर भी ऐसी कुरूढियों से अज्ञान अथवा दुराग्रहवश समाज यदि जोंक की तरह चिपका रहे तो उससे उस समाज के व्यक्तियों को दुःख उठाना पड़ता है । उस समय जिन्हें ऐसा दुःख उठाना पड़ता है उन्हे कोई कहे कि यह दुःख तो कुरूढियों के कारण नहीं किन्तु पूर्वकृत कर्म के कारण हैं, अतः ऐसा दुःख सिर झुकाकर सह लेना चाहिए, तो ऐसा कथन उन्हें अफीम देकर उसके नशे में सुला देने जैसा है। ऐसी परिस्थिति में प्रत्यक्ष दोष इन कुरूढियों का है । जिस प्रकार काँट चभने से होनेवाली वेदना काँटे के कारण होती है उसी प्रकार कुरूढि के आक्रमण से होने वाली पीडा और दुःख कुरूढि के कारण हैं, और इस तरह के दुःख के उत्तरदायी इन कुरूढियों के प्रचारक एवं पोषक ही हैं अतः संगठनशक्ति के न्यायपूत आन्दोलन से ऐसे लोगों का सामना करके कुरूढि के दुःखद तथा अवनतिकारक वातावरण को मिय देना चाहिए । ऐसा होने से पूर्वकर्म जनित कुरूढिरूप हथियार का बल विनष्ट हो जायगा। जो बात कुरूढियों को लागू होती है वही बात दरिद्रों का शोषण करनेवाले पूँजीवाद तथा दुर्बल जातियों का शोषण करने वाले साम्राज्यवाद को भी लागू होती है । इसी प्रकार अत्याचारियों की ओर से निर्दोषों के ऊपर गुजारे जानेवाले अत्याचारों को तथा सत्ताधीश वर्ग की ओर से दलितों को मानवोचित सुविधा प्रदान न करके उन्हें दबाए रखने के प्रयत्नों को भी लागू होती है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org