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________________ २५८ जैनदर्शन धीराः ।' अर्थात् जो विकार की सामग्री उपस्थित होने पर भी विकार के वश नहीं होते वे ही धीर हैं । षड्रस से युक्त भोजन जीभ पर बलात्कार करके जबरदस्ती मुँह में नहीं घुसता । श्रुति-मनोहर राग हमारे कानों में जबरदस्ती घुस कर हमें लुब्ध नहीं करता । इसी प्रकार इन्द्रियों के सब विषय आत्मा की अनिच्छा होने पर जबरदस्ती उसे भोग में नहीं खींचते । इन्द्रियों के विषय में जबरदस्ती कर के नहीं लिपटते, तो भी उनके भोग (स्थूल भोगोपभोग) सामान्यतः देहधारी जीवनयात्रा के साथ अनिवार्यरूपेण संयुक्त हैं । ऐसा होने पर भी ध्यान में रखने योग्य बात तो यह है कि जबतक स्वयं आत्मा लुब्ध न हो तब तक स्थूल भोग में विलासवृत्ति का उदय बलवान नहीं हो सकता । और उस विलासवृत्ति में लुब्ध होना या नहीं यह आत्मा की अपनी शक्ति की बात है । मतलब यह कि कर्मोदय में रसवृत्ति रखना और ज्ञानबल से रसवृत्ति दूर करना--यही कर्मोदयजन्य विकार को पराजित करने का उपाय है। भोग की सामग्री उपस्थित होने पर भी यदि मनुष्य अपने आन्तरिक सामर्थ्य के बल पर दृढनिश्चयी होकर अपने आसन पर से चलित न हो तो भोगसामग्री अपने आप उससे लिपटेगी क्या ? कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य अपने दृढ मनोबल का उपयोग करके भोग में अपने आपको जोड़ने से दूर रह सकता है । परन्तु यदि वह धीरज खो बैठे तो भोग में फिसला ही समझो ! ऐसी स्थिति में इसका दोष कर्म के मत्थे मढ़ने की अपेक्षा अपनी आत्मिक निर्बलता के ऊपर डालना ही अधिक औचित्ययुक्त और संगत है। अनेक ज्ञानीजनों के उदाहरणों से ज्ञात होता है कि भोजनपानादि का उपभोग करने पर भी उन सबमें वे जाग्रत-अनासक्तभाव से विचरण करते हैं जिससे कर्म-बन्ध के बाधाकारक संयोगों से विमुक्त रहते हैं । न्याययुक्त, औचित्ययुक्त उपयोगी भोग यदि समतापूर्वक किया जाय, जाग्रत रह कर किया जाय तो उसमें कुछ डरने-जैसा नहीं है यह हम ध्यान में रखें । १. कालिदास के 'कुमारसम्भव' के प्रथम सर्ग के उपान्त्य श्लोक का उत्तरार्ध । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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