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चतुर्थ खण्ड
परन्तु सच्ची बात तो यह है कि सर्प, विष आदि की भयानकता तथा उनकी दुःखकारकता में हमें जितना विश्वास है उतना दुष्कृत्य की भयानकता में नहीं है । उतना विश्वास अनीति-अन्यायरूप पापाचरणों की भयानकता एवं दुःखकारकता में उत्पन्न होना चाहिए । ऐसा विश्वास जब उत्पन्न हो तभी कर्मवाद में यथार्थ श्रद्धा पैदा हुई है, ऐसा समझा जायगा ।।
'कर्मवाद का सिद्धान्त सच्चा है'—ऐसा मुँह से बोलना तो ठीक है, परन्तु समय पर इस नियम का जानबूझकर अनादर करना वस्तुतः कर्मवाद पर की अश्रद्धा सूचित करता है, अथवा भविष्य में मिलनेवाले कटु फल की अपेक्षा तात्कालिक भौतिक लाभ विशेष अच्छा लगता है ऐसा प्रकट करता है । किसी समय परिस्थितिवशात् लाचारी से अथवा किसी के अनिवार्य दबाव के कारण कर्मवाद के नियम की यदि उपेक्षा करने के लिये विवश होना पड़े तो उस समय भी कर्मबन्ध होता ही है, परन्तु उसके स्थिति और रस अल्प होते हैं ।।
[२] उदय में आए हुए कर्म को समतापूर्वक-समभाव से भोग लेने में ही बुद्धिमता है । इस तरह उन्हें भोग लेने से वे कर्म समाप्त हो जाते हैं और नये दुःखद कर्मों का बन्ध नहीं होता । परन्तु जब कर्म के सुखभोगरूप फल का आसक्तिपूर्वक उपभोग किया जाता है और दुःखभोगरूप फल दुर्ध्यान से सहे जाते हैं तब दूसरे नये कर्मों का बन्ध होता है । अतः सुखभोग के उदयकाल में सुखभोग में लिप्त न रह कर अर्थात् अनासक्तभाव से समभाव पूर्वक उदय में आए हुए इन कर्मों का सुखोपभोग कर लेने से तथा दु:खद स्थिति के समय हिम्मत से मन में शान्ति रख कर दुःख को (उदय में आए हुए असातकर्म को) सह लेने से वह (उदयागत) कर्म इस तरह क्षीण हो जाता है कि उसके अनुसंधान में नये अशुभ कर्म. नहीं बँधने पाते ।
कर्मयोग से भोगसामग्री उपस्थित होने पर भी उसमें आसक्त होना या न होना, अथवा मोहविकार के वश होना या न होना यह आत्मा के अपने सामर्थ्य की बात है । 'विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव
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