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चतुर्थ खण्ड
कर्मविचार
[१] प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने कृत्यों के लिये उत्तरदायी है, परन्तु समाज के सामुदायिक कृत्यों का परिणाम भी समाज को-समाज के सब व्यक्तियों को भोगना पड़ता है, अरे ! भविष्य के वंशजों को भोगना पड़ता है । उदाहरणार्थ, हमारे पूर्वजों की पारस्परिक फूट के कारण भारत पराधीन हुआ जिसका फल उनके वंशजों को हमें भोगना पड़ा । और अब राजकीय स्वातन्त्र्य-स्वराज्य मिलने पर भि रिश्वत, काला बाजार आदि अनेक देशद्रोही प्रवृत्तियों का बाजार खूब गरम है जिससे देश की निर्दोष जनता आर्थिक शिकंजे में फँसकर खूब तकलीफ उठा रही है।
'जो जैसी करनी करे सो वैसा फल पाए' यह कर्मवाद का सनातन नियम है। कर्मवाद के ज्ञान का सच्चा उपयोग किसी भी कार्य के प्रारम्भ के समय करने का है । अच्छे काम का अच्छा फल और बुरे कर्म का बुरा-यह नियम यदि बराबर ध्यान में रखा जाय तो मनुष्य अशुभ कार्य करने से डरे, उससे हिचकियाए और सत्कार्य करने की ओर ही प्रोत्साहित रहे । पहले किए हुए दुष्कृत्यों का जब कटुफल चखने का समय आए तब विचार करने के लिये अथवा रोने-धोने के लिये बैठना निरर्थक है । यह तो "फिर पछताए क्या होता है जब चिडीया चुग गई खेत' जैसा है। परन्तु इस कटु अनुभव के पश्चात् यदि पश्चाताप की भावना हो, और उसमें से भविष्य के लिये शिक्षा ग्रहण करके तदनुसार चलने की तत्परता हो तो अवश्य वह कल्याणकारी हो सकता है ।
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