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________________ तृतीय खण्ड २५५ में - काम- सुख में तृष्णा का दाह हो सकता है, तुलनात्मक दृष्टि से न्यूनता की वेदना हो सकती है, पर मुक्तिप्राप्त मनुष्य न तृष्णा का शिकार होता है, न तरतमता से पैदा होनेवाले दैन्य या अहंकार का । वह अन्तर्द्रष्टा महावीर तो खिलाड़ी की तरह जीवन के सारे खेल खेलता है । मुक्ति तो इसी जीवन में मिलनेवाला आत्मा का परमोत्कर्ष है । मरने के बाद जो मुक्ति की प्राप्त मानी जाती है वह तो इस जीवन्त देह में सिद्ध की गई मुक्ति की पुनरुक्ति मात्र है । सत्यमय जीवन से प्राप्त होनेवाली ऐहिक मुक्ति है— अखंड आनन्द का अन्तःस्त्रोत, जो सदा और सतत बहता रहता है, न अमीरी से सूखने पाता है और न गरीबी से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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