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जैनदर्शन का मार्ग उन्मुक्त न करे, जो स्वातन्त्रय की भावना प्रदीप्त न करे, जो इस भावना को प्रज्वलित रखने में प्रेरक न बने उस शिक्षण में चाहे जितनी जानकारी क्यों न भरी हो, परन्तु वस्तुतः वह अर्थसाधक शिक्षण नहीं है । बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार की मुक्ति जो प्रदान करे अथवा उस प्रकार की मुक्ति के मार्ग की ओर जो ले जाय वही वास्तविक शिक्षण है । ऐसे उज्ज्वल शिक्षण के द्वारा जो जीवनविकास सधता है वही जीवनमुक्ति की साधना है, जो अन्ततः परममुक्ति की समर्पक होती है ।
मुक्ति के अनुसन्धान में कुछ और भी देखें ।
कल्याणसाधना की पूरी सफलता तभी है जब मनुष्य सर्वज्ञता प्राप्त करे । सर्वज्ञता क्या है ? अनन्तकाल की सब वस्तुओं की सब अवस्थाओं का एक साथ प्रत्यक्ष करना यह सर्वज्ञता की प्रचलित परिभाषा है । इसका आधार लेकर मनुष्य सोचने लगता है कि भविष्य की सारी घटनाएँ तो सर्वज्ञ के ज्ञान में पहले से निश्चित है, इसलिये मैं प्रयत्न करके भी उन्हें बदल नहीं सकता । इस प्रकार वह एकान्त दैववादी और अकर्मण्य बन जाता है। यह जीवन की बड़ी से बड़ी विफलता है । 'काल' आदि द्रव्यों और वस्तुगत पर्यायों को अनन्त मानकर भी उनका इस तरह की सर्वज्ञता से अन्त भी मान लेना यह अद्भूत सी बात कई तार्किक मेधावियों को हृदयङ्गम नहीं होती ।
विश्वकल्याण के प्रत्येक कर्तव्य का पूर्ण प्रत्यक्ष-ज्ञान, जिसका उत्तुङ्ग शिखर प्रखर प्रयत्नशाली प्राणवान् महात्मा ही पा सकता है, कोई कम सर्वज्ञता नहीं है।
मनुष्य का परम और चरम ध्येय सुख है, पर वह सुख या आनन्द तबतक पूरा प्राप्त नहीं होता जबतक मुक्ति नहीं मिल जाती । दर्शन, स्पर्शन आदि का काम-सुख जीवन में प्रचलित ही है और देहयात्रा में अनिवार्य भी है, फिर भी वह सुख अधूरा है। उसे मुक्ति-सुख से ही पूरा किया जा सकता है । मुक्तिसुख सुख का भीतरी स्त्रोत है जो बाहर के दु:ख के समय भी बहता रहता है और बाहर के दुःख की ज्वाला को बुझाता रहता है । बाहर के सुख
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