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तृतीय खण्ड
२५३ उपलब्ध होने पर वह दूसरे को सुखी देखकर प्रमुदित होता है और दूसरे को दुःखी देखकर उसका हृदय करुणा से आर्द्र हो जाता है । इस तरह वह समग्र आत्माओं के साथ अभेदानुभव करता है । यह अभेदभावना जब परम उन्नत अवस्था पर पहुँचती है तब आत्मा विकास की पराकाष्ठा पर पहुँच कर अपना मूल (परमात्म) स्वरूप प्राप्त करता है । (२४) मुक्ति :
संसारी (कर्मावृत) जीव जब तक संसार में (कर्मावृत दशा में ) है तबतक वह अकेला नहीं है । शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि इन सबसे-अपने इस परिवार से वह सतत घिरा हुआ है । अतः यह स्पष्ट है कि इन सब अंगो के विकास में जीव का-जीव के जीवन का विकास है । इन सब के आरोग्यसम्पन्न होने में जीवन की आरोग्यसम्पन्नता है । इन सब की हीनता अथवा अल्पता में जीवन की भी हीनता अथवा अल्पता है । अतः इन सब विकृतियों से अर्थात् बुरी आदत, बुरा झुकाव, बुराविचार, रोग, निर्बलता, भीरुता, आलस, जड़ता, हृदय की कठोरता, विलासिता, कार्पण्य, अभिमान, लोभ-लालच, दम्भ, वहम, गुलामी आदि विकारों से मुक्त होना सर्वप्रथम आवश्यक है । यह प्राथमिक मुक्ति की साधना है। [अंगविकलता की यदि अनिवार्य हालत हो तो उस बात को न लेकर] शरीर, हृदय, मन, बुद्धि और इन्द्रियों को उनके दोषों से मुक्त करने का यथाशक्य प्रयत्न करना वस्तुतः मुक्ति का ही प्रयत्न है । यह प्रयत्न अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार की मुक्ति सच्चे ज्ञान-शिक्षण के प्रभाव से मिलती है; अथवा जो ज्ञान, शिक्षण इस प्रकार की मुक्ति की साधना में उपयोगी होता है वही वास्तविक ज्ञान है, वही वास्तविक शिक्षण है । 'सा विद्या या विमुक्तये'-यह प्राचीन आर्ष सूत्र कहता है कि वही विद्या है जो बन्धनों से मुक्त करे; अर्थात् जो आर्थिक, सामाजिक राजकीय, तथा बौद्धिक दासता में से छुडाकर मनुष्य को बलवान्, विवेकी, प्रवृत्तिशील, परोपकारपरायण तथा सद्गुणी बनाए वही विद्या है । इस प्रकार की मुक्ति का सम्बन्ध अन्तिम आध्यात्मिक मुक्ति के साथ है । जो शिक्षण विचारों को सुधारने में सहायक न हो, जो इन्द्रिय एवं मन को बस में रखना न सिखलाए, जो निर्भयता एवं स्वाश्रय के पाठ न पढ़ाए, जो निर्वाह
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