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जैनदर्शन
में उलझानेवाली आसक्ति से हम बच सकते हैं । राग में बद्ध होकर एक स्थान पर चिपके रहना, उन्नति तथा विकास के मार्ग पर प्रकृति के महानियम के अनुसार आगे और आगे न बढ़ कर एक ही प्रदेश में अथवा एक ही पदार्थ में व्यामोह - वश लिपटे रहना निःसन्देह वैराग्य के विरुद्ध है । व्यामोहवश को हटा करके ऊपर उठने में वैराग्य है । विश्व के वातावरण को अमृतमय अथवा
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विषाक्त बनाना हमारी अपनी दृष्टि कला पर अवलम्बित है । विष वस्तुतः मनुष्य के विकृत मानस में है और इसी कारण वह अपने चारों ओर विष ही देखता है और विष ही फैलाता है । मधुर एवं प्रसन्न मन (विचार दृष्टि सर्वत्र अमृत की वृष्टि करता है, उसे सर्वत्र अमृत ही अमृत की ही अनुभूति होती है । आत्मकल्याणरूप उन्नतिमार्ग में पदे पदे आनन्द ही आनन्द, रस ही रस भरा है । ऊर्ध्वगामी आत्मा अपने उन्नत विहार में उस रस और आनन्द में मस्त रहकर उन्नति के समुन्नत शिखर पर, परमपद की स्थिति पर पहुँच जाती है ।
रस के मोह-राग में लिपट जाना पामरता है, परन्तु जो रस का स्वामी बनकर निर्बन्धभाव से रस का उपभोग करता है, जिसे भौतिक रस की अपेक्षा आत्मविकास के सन्मार्ग में उपलब्ध होनेवाले आनन्दरस की चोट लग गई है वही सच्चा मर्द है । एसा वीर मनुष्य सांसारिक धरातल से बहुत ऊपर उठा हुआ होता है । वह अपने सच्चे सात्त्विक समुन्नत वैराग्यरस में अनुपम आनन्द लूटता है और विश्व के अन्धकार पीड़ित मनुष्यों के लिये तूफानों के बीच एक प्रकाशस्तम्भ जैसा बन जाता है ।
उपर्युक्त विवेचन से यह सहज ही समझा जा सकता है कि वैराग्य का उपदेश मनुष्यों को आलसी और निष्क्रिय नहीं बनाता अथवा निष्क्रिय बनने के लिये नहीं कहता । वह तो उसे अहिंसा एवं सत्य के पाठ सिखाता है । इस प्रकार के शिक्षण द्वारा वह उसे प्रामाणिक, सत्यवादी, परोपकारशील तथा सेवाभावी बनाता है । परोपकार अथवा सेवाभाव की इतिश्री वाणी में ही नहीं होती । सन्तजन भी अपने शरीर द्वारा भी उसका आनन्द लूटने में सदा उद्यत रहते हैं । सच्ची दृष्टि खुल जाने पर महाभाग्यशाली को समझ में आता है कि सब जीव एक हैं अर्थात् एकरूप हैं । ऐसी दिव्यदृष्टि
१. 'एगे आया' – ठाणांग, सूत्र दूसरा ।
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