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________________ २५१ तृतीय खण्ड भवभ्रमण के फन्दे में फँसा हुआ है । मनुष्य स्थूल पदार्थों का त्याग करके चाहे उन सबसे दूर-सुदूर चला जाय, उन सबसे भले वह भाग खड़ा हो, परन्तु अपने चित्त से वह कैसे दूर जा सकता है ? अपने चित्त से-वासनामय चित्त से वह भाग नहीं सकता । और जबतक वासनामय चित्त है तबतक उसके साथ संसार चिपका हुआ ही है । संसार की सच्ची रंगभूमि प्राणी के अन्तःप्रदेश में है । बाहर तो केवल उसके आन्तरिक भावों का स्थूल प्रकटीकरण ही है। अनीति-अन्याय तथा स्वार्थान्धता आदि दोषों का धाम राग है, अतः उसे दूर करने पर जो वैराग्यभाव प्राप्त होता है वह मनुष्य को उदार, सत्याचरणी, विवेकदृष्टि और वत्सल (स्नेहार्द्र) प्रकृति का बनाता है । रागवासना जैसे-जैसे हटती जाती है और उसके परिणामस्वरूप वैराग्य का सात्त्विक भाव जैसे जैसे खिलता जाता है वैसे वैसे मनुष्य त्यागी और परोपकारपरायण बनता है, वैसे-वैसे उसकी लोक-बन्धुता की भावना विकसित होती जाती है । त्याग और परोपकारभाव उसके स्वभाव बन जाते हैं और इन्हीं में वह आनन्दित रहता है । वैराग्य में [शब्द और अर्थ दोनों दृष्टि से] रागवासना को दूर करने का ही मुख्य भाव है। अत्यन्त कठिन और प्रखर प्रयत्नों से साध्य यह वैराग्य उतनी ही स्थिर और ज्वलन्त विवेकदृष्टि पर अवलम्बित है । इस दृष्टि में यदि तनिक भी मन्दता आई तो तुरन्त ही वैराग्य दूध की भाँति फट जायगा । जाज्वल्यमान विवेकदृष्टि पर चमकता हुआ वैराग्य मानवसमूह के बीच, बागबगीचे और मकानों में तथा भोजन-पान के अवसर पर सदा अबाधित रहता है । अर्थात् मकान में रहने पर, भोजन-पान लेने पर और मानवसमूह के बीच रहने पर भी उसका वैराग्य अक्षण्ण बना रहता है, जबकि ऊपर-ऊपर से बड़ा त्यागी-तपस्वी दिखाई देनेवाला वनवासी अथवा संन्यासी मोहवासनाओं में लिप्त हो सकता है । सच्ची वैराग्यदृष्टि प्राप्त होने पर उपलब्ध सुख-सामग्री १. वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां ग्रहेषु पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः । अकुत्सिते वर्त्मनि यः प्रवर्तते निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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