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जैनदर्शन
यहाँ पर हमें यह जान लेना उपयोगी होगा कि मानव-जीवन के सर्वांगीण विकास के लिये बुद्धि ( जो कि ज्ञान का स्थान है) और हृदय (जो कि श्रद्धा का स्थान है ) इन दोनों का सामञ्जस्य आवश्यक है । ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । बुद्धि यदि कर्तव्यमार्ग सूझाती है तो हृदय उस मार्ग पर चलने की प्रेरणा करता है । हृदय के बिना बुद्धि निष्क्रिय है और बुद्धि के बिना हृदय दिग्भ्रान्त है । बुद्धि और हृदय इन दोनों के सुमेलसामञ्जस्य से ही जीवनयात्रा चल सकती है।
चारित्रमार्ग में ज्ञान की अपूर्णता को श्रद्धा द्वारा पूर्ण करके आगे बढ़ा जा सकता है । जैसेजैसे अनुभवज्ञान का क्षेत्र बढ़ता जाता है वैसे-वैसे श्रद्धा का क्षेत्र कम होता जाता है—यद्यपि श्रद्धा की घनिष्ठता बढ़ती ही जाती है । और जब अनुभवज्ञान अपनी पूर्णता पर पहुँचता है तब श्रद्धा अपना स्वतन्त्र अस्तित्व खोकर अनुभवज्ञान में विलीन हो जाती है ।
जब किसी भी वस्तु के अस्तित्व के बारे में अथवा किसी कार्यकारणभाव के सम्बन्ध में सन्देह के लिये किंचित् भी अवकाश रहता हो तब श्रद्धा रखने-न-रखने का प्रश्न उपस्थित होता है, परन्तु जब उस बात का प्रत्यक्षरूप से अथवा प्रयोग द्वारा अनुभवज्ञान होता है तब श्रद्धा रखने - न-रखने का प्रश्न नहीं रहता । (२३) वैराग्य :
संसार यह कुछ ईंट-पत्थर का मकान नहीं है । माता-पिता-बन्धु अथवा मित्र ये संसार नहीं है। वह बाग-बगीचे अथवा द्रव्य-सम्पत्तिरूप नहीं है । वह उद्योग अथवा प्रवृत्तिव्यापाररूप नहीं है । संसार इनमें से किसी में नहीं है । अतएव इन सबके त्याग से संसार का वास्तविक त्याग होता हो ऐसा समझना योग्य नहीं है । मनुष्य का वास्तविक संसार उसके हृदय मेंमन में है । ऐसे मन के साथ वह बस्ती में रहे अथवा जंगल में रहे-कहीं भी रहे उसका संसार उसके साथ ही होता है । वासना (मोह-वासना, क्लेशवासना) ही संसार है । इस वासना से जीव जबतक आक्रान्त होता है तबतक, फिर वह चाहे गृहस्थ-अवस्था में हो अथवा सन्यासी अवस्था में, वह
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