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तृतीय खण्ड
२४९ हरिभद्राचार्य का 'युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः' [जिसका वचन युक्तियुक्त हो उसी को स्वीकार करना] वाक्य अथवा उसके जैसे दूसरे उद्गार मुंह से निकालने तो सरल हैं । परन्तु जब कोई अपनी परम्परा की युक्तिरहित बात को वैसी (युक्तिरहित) कहे तो क्रोध आ जाता है । और समतापूर्वक उस पर विचार नहीं किया जाता । इसी प्रकार अन्य परम्परा की युक्तियुक्त बात को स्वीकार करने में मन हिचकिचाता है । यदि हमारी ऐसी स्थिति हो तो हरिभद्राचार्य की उपर्युक्त उदार सूक्ति का हमने आदर अथवा उस पर अमल किया यह कैसे कहा जायगा ?
आचार्य हरिभद्र एक विद्वान ब्राह्मण और दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे । जैनधर्म स्वीकार करके वे जैनशासन के महान् प्रभावक आचार्य बने थे । उन्होनें
पक्षपातो न वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचन यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥
[लोकतत्त्वनिर्णय ३८] ऐसा कहकर स्पष्टरूप से उद्घोषित किया है कि यद्यपि मैं भगवान् महावीर का अनुयायी हूँ, फिर भी मुझे भगवान् महावीर की ओर न तो पक्षपात ही है और कपिल आदि अन्य सम्प्रदायों के पुरस्कर्ता महर्षियों की ओर न द्वेषभाव ही । अमुक वचन भगवान् महावीर का है इसी लिये तुम उसे मानो
और अमुक वचन महर्षि कपिल आदि का है इसलिये उसे फेंक दो-ऐसा मेरा कहना नहीं है । वचन चाहे जिसका हो, वह किसका है यह बात तुम भुल जाओ, परन्तु उस पर तुम विचार करो, उसे बुद्धि की कसौटी पर कसो और वह युक्तिसंगत प्रतीत हो तभी उसका स्वीकार करो, ऐसा मेरा कहना है ।।
इस महान् आचार्य के कहने का तात्पर्य यह है कि 'मेरा सो सच्चा' ऐसा पक्षपात अथवा पूर्वग्रह छोड़कर सुसंकृत एवं मध्यस्थ बुद्धि से परीक्षा करने पर 'जो सच्चा सो मेरा' ऐसा स्वीकार करने जितनी विशाल भावना विकसित करो, जिससे साम्प्रदायिक मूढ़ता दूर हो और हृदय विशाल, निष्पक्षपात एवं सत्यग्राही बने, अस्तु ।
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