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जैनदर्शन
प्रोत्साहक होता हो तो उस मनुष्य के लिये वे दोनों श्रेयस्कर हो सकते हैं ।
इस प्रकार धर्म मुख्य मुद्दे की चीज है, जबकि दार्शनिक मतवाद तथा क्रियाकाण्ड का सौष्ठव धर्मपालन में उपयोगी अथवा सहायक होने में ही है । जिसके पवित्र धर्मसाधन में जो तत्त्वज्ञान और जिस प्रकार का क्रियाकाण्ड सहायक हो वह उसके लिये अमृतरूप है । अत: दार्शनिक मन्तव्यों के भेदों अथवा क्रियाकाण्ड की भिन्न भिन्न पद्धियों के उपर से धर्म को भिन्न-भिन्न मान लेने की दृष्टि गलत है, इसलिये वह दूर करनी चाहिए और अहिंसा - सत्य के सन्मार्ग में धर्म माननेवाले सब, चाहे वे लाखों और करोडों हों, एक ही धर्म के हैं— साधार्मिक हैं ऐसा समझना चाहिए ।
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जीवन का कल्याण शास्त्रज्ञान की विशालता अथवा अधिकता पर अवलम्बित नहीं है । जीवन का कल्याण तो तत्त्वभूत समझ पर दृढ़रूप से अमल करने में है । मोटी बुद्धि के मनुष्य भी अनीति - अन्याय तथा रागद्वेष न करने के उपदेश को जीवन में उतार कर झपाटे में तैर गए है, जबकि बडे-बडे पण्डित, शास्त्री अथवा दार्शनिक तत्त्वदृष्टि का स्पर्श करने में असमर्थ रहने के कारण भवसागर में गोते लगाते रहते हैं !
'मेरा तो सच्चा' ऐसा नहीं, किन्तु 'सच्चा सो मेरा' ऐसे बोलने में बहुत से लोग चतुराई तो दिखलाते हैं परन्तु व्यवहार में वे पक्ष-मोह से आकृष्ट होकर सच्चा क्या है इसका विचार करने के लिये नहीं रुकते । वे तो 'अपना सो सच्चा और दूसरे का सब खोटा' ऐसे मनोबद्ध पूर्वग्रह से प्रेरित होकर दूसरे को मिथ्यात्वी, कुसंगी' नास्तिक, काफिर आदि कहने में तनिक भी संकोच नहीं रखते । परन्तु यह बडी नासमझी की बात है ।
जिसे हम अपना आप्तपुरुष मानते हों उसके बारे में श्रद्धाभाव रखें यह स्वाभाविक है, परन्तु वह श्रद्धा अन्धश्रद्धा न होनी चाहिए । वास्तविक आप्तपुरुष के बारे में भले ही श्रद्धा रखी गई हो परन्तु उस श्रद्धा की नींव में विवेक विचार न हो तो वह जागरित एवं अटल श्रद्धा नहीं होगी । जब उस श्रद्धा के पीछे विवेक विचार का बल होता है तभी वह सच्ची और पक्की श्रद्धा बनती है ।
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