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________________ तृतीय खण्ड २४७ संसार में दार्शनिक (Philosophical or logical)मन्तव्य सर्वदा भिन्न भिन्न ही रहने के । इसी प्रकार क्रियाकाण्ड की प्रणालिकाएँ भी पृथक्-पृथक् ही रहने की । बौद्धिक क्षयोपशम की भिन्न-भिन्नता के कारण विद्वानों की दार्शनिक विचारधाराएँ एकदूसरे से अलग पड़ती हैं । दार्शनिक विचारधाराओं में से कोई युक्त, कोई अयुक्त, तो कोई युक्तायुक्त हो सकती है, परन्तु क्रियाकाण्ड की बात कुछ निराली है । भगवत्प्रार्थना अथवा आत्मभावना की क्रिया का बाह्यरूप शरीर के अंगोपांगों के साथ बाह्य उपकरणों के साथ तथा दिन-रात के एवं साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक अथवा वार्षिक रूप से पसन्द किए गए समय के साथ सम्बद्ध होकर वह क्रिया सहजरूप से भिन्न भिन्न देश-काल के रंग-ढंग के अनुसार, भिन्न भिन्न मनुष्यों एवं वर्ग की रुचि के अनुसार, हमेशा भिन्न-भिन्न प्रकार की ही रहने की । भिन्न-भिन्नता अथवा वैविध्य बाह्य क्रिया का नैसर्गिक स्वभाव है। यह बात बहुत ही सीधी-सादी है, फिर भी क्रियाभेद के ऊपर जो नाक-भौंह सिकोड कर लड़ने पर तुल जाते हैं वह उनकी भूल हैं। ___ यहाँ पर यह समझ लेने की आवश्यकता है कि दार्शनिक मन्तव्यों अथवा क्रियाकाण्डों की भिन्नता के कारण धर्म में भिन्नता नहीं आ सकती । हजारों मनुष्यों में दार्शनिक मान्यता अथवा क्रियाकाण्ड की पद्धति एक-दूसरे से भिन्न होने पर भी यदि वे सत्य-अहिंसारूप एक धर्म में मानने वाले हों तो वे सब एक धर्म के कहे जा सकते हैं । ____ यह बात स्पष्ट है कि धार्मिकता का नाप धर्म से (जीवन धर्म के निर्मल रंग से जितना रंगा हो उस पर से) होता है, न कि दार्शनिक पटुता अथवा क्रियाकाण्ड के बाह्य आचरण पर से । इसी तरह यह भी स्पष्ट है कि जीवन का उद्धार एकमात्र धर्म से (अहिंसा सत्यरूप सद्धर्म के पालन से) ही शक्य है, कोरे दार्शनिक मन्तव्यों के स्वीकार से अथवा केवल क्रियाकाण्ड से नहीं । ऐसा होने पर भी भिन्न-भिन्न प्रकार के दार्शनिक वादों में से कोई भी वाद यदि किसी मनुष्य की पवित्र धर्म-साधना में सहायक होता हो अथवा किसी पद्धति का क्रियाकाण्ड उसकी पवित्र धर्म-साधना में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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