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जैनदर्शन इस तरह आत्मा आदि तत्त्वों के विषय में अपने अपने दर्शनसम्प्रदाय के अनुसार जब भिन्न-भिन्न विचारों का [आत्मा नित्य है या अनित्य इत्यादि प्रकार के] संघर्षण होता है और वे विवाद एवं वैषम्य उपस्थित करते हैं तब ऐसी दशा में युक्तिपूर्ण समन्वयवाद ही अनेक दृष्टिबिन्दुओं को समझाकर इस संघर्ष को दूर कर सकता है और पारस्परिक विवाद एवं विरोध को मिटाकर समाधान करा सकता है। इस समन्वयवाद का नाम ही नयवाद है, जो विविध विचारों की संगमन-कला है। यह सापेक्ष विचारदृष्टि होने से अपेक्षावाद भी कहा जा सकता है ।
सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं कि जितने प्रकार के वचन हैं उतने प्रकार के नय है । इस पर से दो बातें मालूम होती है । एक तो यह कि नय अनगिनत है और दूसरी यह कि नय का वचन के साथ बहुत अधिक सम्बन्ध है। प्रत्येक नय वचन द्वारा प्रकट किया जा सकता है अतः नय को उपचार से वचनात्मक भी कह सकते है । इस तरह नय दो प्रकार का कहा जा सकता है : भावनय और द्रव्यनय । ज्ञानात्मक नय भावनय है और वचनात्मक नय द्रव्यनय है।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में श्रीविद्यानन्दिस्वामी कहते हैं कि
सर्वे शब्दनयास्तेन परार्थप्रतिपादने । स्वार्थप्रकाशने मातुरिमे ज्ञाननयाः स्थिता:२ ॥
अर्थात्-सब नय अपने को बोधकरूप होने पर ज्ञाननय हैं और दूसरे को बोधकरूप होने पर शब्दनय हैं ।
१. जावइया वयणपहा तावइया चेव होंति णयवाया । जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥
-सन्मतितर्क ३-४७. अर्थात्-जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने परसमय
(मतान्तर) हैं । २. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में तत्त्वार्थसूत्र के प्रथमाध्याय के ३३वें सूत्र के वार्तिक में ९६वा
श्लोक ।
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