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________________ ३५५ पंचम खण्ड और सुरभित वातावरण उत्पन्न कर सके होते और इसके परिणामस्वरूप समग्र जनसमूह के बीच मधुर मैत्रीभाव आज हमें देखने को मिलता । परन्तु दुनिया का भाग्य इतना प्रबल नहीं होगा ! एक ही वस्तु के बारे में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों का अवलम्बन लेकर भिन्न-भिन्न विचारसरणियों का निर्माण होता है । ये विचारसरणियाँ नय हैं । संस्कारी अथवा व्यापक (अनेकान्त) दृष्टि इन भिन्न-भिन्न विचारों के पीछे रहे हुए उनके आधारभूत जो भिन्न भिन्न दृष्टिबिन्दु हैं उनकी जाँच करती है और ऐसा करके न्याय सामंजस्य स्थापित करती है । अतः नयवाद की विशाल विचाारसरणी समन्वय करने का मार्ग है । जिस प्रकार समुद्र का बिन्दु समुद्र भी नहीं कहा जाता और असमुद्र (समुद्रबाह्य) भी नहीं कहा जाता, किन्तु समुद्र का एक अंश कहा जाता है; अंगुली का एक पोर अंगुली भी नहीं कहा जाता और अंगुली नहीं है ऐसा भी नहीं कहा जाता फिर भी अंगुली का अंश तो है ही, उसी प्रकार 'नय' भी प्रमाण का अंश है । किसी भी विषय के बारे में अंश-अंश से विचार उत्पन्न होता है और ऐसा होकर के ही अन्ततः वह विशालता अथवा समग्रता में परिणत होता है । किसी विषय के समुचे ज्ञान का उपयोग व्यवहार में अंश-अंश से ही होने का । इसलिये समग्रविचारात्मक श्रुत से अंशविचारात्मक नय का निरूपण पृथक्प से करना प्राप्त होता है । नयवाद अर्थात् अनेकांगलक्षी विचारबुद्धि विरोधी दिखाई देनेवाले विचारों के वास्तविक अविरोध का मूल खोजती है और ऐसा करके उन विचारों का समन्वय करती है । उदाहरणार्थ, आत्मा एक है और अनेक हैंइस प्रकार उभयतया उपलब्ध होनेवाले विरुद्धाभास कथनों की संगति किस तरह हो सकती है, इसकी खोज करके नयवाद ने इस तरह समन्वय किया है कि व्यक्तिरूप से आत्मा अनेक हैं और शुद्ध चैतन्यरूप से एक है । ऐसा समन्वय कर के नयवाद परस्पर विरोधी दिखाई देनेवाले वाक्यों का अविरोध [एकवाक्यता] सिद्ध करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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