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जैनदर्शन दोनों दृष्टियाँ नय कहलाती है ।
जो अभिप्राय ज्ञान से सिद्धि बतलाता है वह 'ज्ञाननय' और जो अभिप्राय क्रिया से सिद्धि बतलाता है वह 'क्रियानय' । ये दोनों अभिप्राय नय हैं ।
अभिप्राय बतानेवाले शब्द, वाक्य, शास्त्र अथवा सिद्धान्त इन सबको नय कह सकते हैं । अपनी-अपनी मर्यादा में रहनेवाले ये नय माननीय हैं
और यदि वे एक-दूसरे को झूठा सिद्ध करने का प्रयत्न करें तो वे अमान्य हैं । उदाहरण के तौर पर ज्ञान से भी सिद्धि बतलाई जाती है । ये दोनों अभिप्राय अथवा विचार अपनी-अपनी सीमा में सच्चे हैं । पन्तु यदि एकदूसरे को झूठा सिद्ध करने का प्रयत्न करें तो वे दोनों मिथ्या सिद्ध होंगे । भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्द पर निर्मित भिन्न-भिन्न अभिप्राय, जिसे नय कहते हैं, अपने प्रदेश अथवा विषय की सीमा तक सत्य हैं । 'नय' वस्तु के अंश का ग्राहक होने से आंशिक ज्ञान है । अतएव वह आंशिक अथवा आपेक्षिक सत्य है । एक अपेक्षा पर अवलम्बित अपने आंशिक ज्ञान को सम्पूर्ण सत्य मानकर दूसरी अपेक्षा पर अवलम्बित दूसरे के आंशिक ज्ञान को, दूसरी ओर का विचार किए बिना, असत्य कहना वस्तुतः दुराग्रह है । इस प्रकार का दुराग्रह मानवसमाज के लिये हानिकर है, फिर वह दुराग्रह चाहे आर्थिक सामाजिक, राजकीय अथवा धार्मिक विषय का क्यों न हो । किसी भी विषय में किसी एक दृष्टिबिन्दु से होनेवाले सापेक्ष ज्ञान को पूर्ण ज्ञान न मानकर उस विषय का यथाशक्य अन्यान्य दृष्टिबिन्दुओं से अवलोकन किये जाने पर उन सब दृष्टिबिन्दुओं के समन्वय से जो बोध होता है उसे पूर्ण सत्य ज्ञान समझना चाहिए ।
एक दूसरे की विचारदृष्टि को यथास्थित रूप से समझने का यत्न न करने के कारण और अभिमान एवं घमण्ड के कारण सामान्य मनुष्य तथा तार्किक पण्डित भी चिरकाल से एक-दूसरे के साथ लड़ते आए हैं । धर्माचार्यों ने भी यदि एक-दूसरे के दृष्टिबिन्दुओं का को शान्तभाव से समझने का प्रयत्न किया होता तो अवश्य ही एक-दूजे के दृष्टिबिन्दुओं का तथा तत्सापेक्ष समझ का सीधा और उपयोगी अर्थ ग्रहण करके वे जनता में सुन्दर
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