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________________ पंचम खण्ड ३५३ देहधारी आत्मा सतत परिवर्तन के चक्र में घूमता रहता है । इस परिवर्तनशीलता के कारण नित्यद्रव्यररूप आत्मा को कथंचित् अनित्य भी माना जा सकता है । अतएव आत्मा को एकान्त नित्य नहीं, एकान्त अनित्य नहीं किन्तु नित्यानित्य मानना प्राप्त होता है । ऐसी दशा में जिस दृष्टि से आत्मा नित्य है वह और जिस दृष्टि से आत्मा अनित्य है वह दोनों दृष्टियाँ नय कहलाती है । यहाँ पर एक बात ध्यान देने योग्य है कि आत्मा कहने पर मुख्यतः द्रव्य ध्वनित होता है और घटे कहने पर मुख्यतः पर्याय ध्वनित होता है। अतः आत्मा कहने से मुख्यतः पर्याय ध्वनित होता है । अतः आत्मा कहने से मुख्य रूप से नित्य तत्त्व का बोध होता है और घट कहने पर, इससे विपरीत, मुख्य रूप से अनित्य अर्थ का बोध होता है । आत्मा मूल द्रव्य होने से नित्य ही है और घट पुद्गल का पर्याय होने से अनित्य ही है । शरीर से आत्मा भिन्न ही है यह बात स्पष्ट और निःसन्देह है। परन्तु इसमें इतना ध्यान रखना चाहिए कि दही में जिस प्रकार मक्खन व्याप्त होकर रहा है । उसी प्रकार शरीर में आत्मा व्याप्त होकर रहा है । इस पर से यह स्पष्ट है कि मटके और उसमें रहे हुए लड्डु की भाँति शरीर और आत्मा भिन्न सिद्ध नहीं होते और इसीलिये शरीर के किसी भाग में चोट लगने पर तुरन्त ही आत्मा को दुःख होने लगता है। शरीर एवं आत्म का ऐसा गाढ़-अत्यन्त गाढ़ सम्बन्ध होने से जैनशास्त्रकार कहते हैं कि आत्मा शरीर से वस्तुतः भिन्न होने पर भी उसे शरीर से सर्वथा भिन्न न मानना चाहिए, क्योंकि यदि वैसा माना जाय तो सर्वथा भिन्न दो मनुष्यों के शरीर में से किसी एक के शरीर पर आघात लगने से जिस प्रकार दूसरे को दुःख नहीं होता उसी प्रकार शरीर पर आघात लगने पर आत्मा को दु:ख का अनुभव नहीं होगा । परन्तु वह होता है सही। अतः आत्मा और शरीर का किसी अंश में अभेद भी मानना चाहिए । अर्थात् शरीर एवं आत्मा वस्तुतः सर्वथा भिन्न होने पर भी इन दोनों का संयोग इतना घनिष्ठ है कि इस संयोग की दृष्टि से उन्हें कथंचित् अभिन्न भी कह सकते हैं । इस स्थिति में जिस दृष्टि से आत्मा और शरीर भिन्न हैं वह और जिस दृष्टि से आत्मा और शरीर का अभेद माना जाता है वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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