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________________ ३५२ जैनदर्शन भिन्न-भिन्न यथार्थ अभिप्राय या विचार 'नय' कहे जाते हैं । एक ही मनुष्य को भिन्न-भिन्न अपेक्षा से चाचा-भतीजा, मामा-भानजा, पुत्र-पिता, श्वसुर-जामाता आदि जो माना जाता है इससे-इस सादे व्यावहारिक दृष्टान्त से 'नय' का ख्याल आ सकता है । वस्तु में एक धर्म नहीं है, अनेक धर्म हैं । अतएव वस्तुगत भिन्न-भिन्न धर्मों के बारे में जितने-जितने अभिप्राय उतने 'नय' है । जगत् के विचारों के आदान-प्रदान का सब व्यवहार 'नय' है। अनेकान्तदृष्टि से वस्तु उसके व्यापक स्वरूप में है यानी वह कैसे धर्मों का भण्डार है यह समझ में आता है और व्यवहार के समय उनमें से किसी एक समयोचित धर्म का उपयोग किया जाता है। यही नय का प्रदेश है। अब नयदृष्टि के कुछ उदाहरण देखें । एक ही घट वस्तु मूल द्रव्य अर्थात् मिट्टी की अपेक्षा से विनाशी नहीं है अर्थात् नित्य है, किन्तु उसके आकारादि पर्याय (परिणाम) की दृष्टि से विनाशी है । इस तरह एक दृष्टि से घट को नित्य मानना और दूसरी दृष्टि से अनित्य मानना—ये दोनों नय हैं' ।। इसमें सन्देह नहीं है कि आत्मा नित्य है, क्योंकि उसका नाश नहीं होता । परन्तु उसके संसारी जीवन में सर्वदा और सतत परिवर्तन हुआ करता है । आत्मा किसी समय पशुजीवन प्राप्त करता है, किसी समय मनुष्य अवस्था में आता है तो किसी समय देवभूमि का भोक्ता बनता है और कभी नरक आदि दुर्गति में जा गिरता है, यह कितना परिवर्तन ! एक ही आत्मा की ये कैसी विलक्षण अवस्थाएँ ! यह सब क्या सूचित करता है ? निःसन्देह आत्मा की परिवर्तनशीलता ही । उसके एक ही शरीर की यात्रा भी क्या कुछ कम परिवर्तनशील है ? विचार, वेदना, भावना आदि और हर्ष, विषाद आदि अवस्थाओं के उसके आन्तरिक परिवर्तन भी सतत चालू ही है । इस तरह १. “Nothing extinguishes, and even those things which seem to us to perish, are, in truth, but changed." अर्थात्-किसी पदार्थ का नाश नहीं होता । जो पदार्थ नष्ट होते हुए हमें दीखते हैं वे भी वस्तुतः सिर्फ परिवर्तित होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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