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पंचम खण्ड
है, जबकि दूसरा वस्तु के अंश को ग्रहण करता है । परन्तु मर्यादा का तारतम्य होने पर भी ये दोनों ज्ञान है शुद्ध । प्रमाणरुप शुद्ध ज्ञान का उपयोग 'नय' द्वारा होता है, क्योंकि प्रमाणरूप शुद्ध ज्ञान को जब हम दूसरे के आगे प्रकट करते हैं तब वह एक खास मर्यादा में आ जाने से 'नय बन जाता है । वस्तु के एक अंश का स्पर्श करनेवाली एक नयदृष्टि को उसी वस्तु के दूसरे अंश का ज्ञान हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता । यदि हो तो भी अपने विषय का स्पर्श करने की— अपने ही विषय को ग्रहण करने की उसकी मर्यादा है । और व्यवहार मार्ग ऐसा ही होता है । ज्ञान की महत्ता और उपयोगिता जब बतलानी हो तब ज्ञान के महत्त्व का अथवा उसकी उपयोगिता का जो वर्णन किया जाता है वह ज्ञानदृष्टिरूप ज्ञाननय के काण है । उस समय क्रिया के औचित्य का ज्ञान होने पर भी ज्ञाननय प्रसंग के अनुरूप ज्ञान की ही महत्ता बतलाता है । और ऐसा करने में वह कुछ अनुचित कार्य नहीं करता । हाँ, वह अनुचित करता हुआ तभी कहा जायगा जब अपनी बात कहने की धुन में क्रिया की उपयोगिता का अपलाप करने लगे ।
वस्तुतः अनेकान्तदृष्टि (स्याद्वाद की न्यायदृष्टि) का विकास करना आवश्यक है । इसी के बल पर वस्तु की भिन्न-भिन्न बाते - वस्तु के भिन्नभिन्न धर्म अथवा अंश अवगत हो सकते हैं । और ऐसा होना आवश्यक भी है; क्योंकि तभी [ दूसरी तरफ का ज्ञान हो तभी ] व्यवहार में वस्तु के किसी अंश अथवा धर्म का यथासमय उचित उपयोग शक्य हो सकता है और तभी दूसरे के इस प्रकार के उचित उपयोग का सम्मान किया जा सकता है । इससे दूसरी ओर के विचार के साथ जो अज्ञानमूलक संघर्ष होता है वह नहीं होगा । समन्वयदृष्टि द्वारा सम्भावित अन्य पहलुओं का योग्य सामंजस्य स्थापित करने का कौशल प्राप्त होने से भिन्न-भिन्न प्रकार के अथवा भिन्न भिन्न पहलुओं के विचार रखनेवालों के बीच समझपूर्वक ऐकमत्य स्थापित करना प्रायः शक्य होता है । इसके परिणामस्वरूप सौमनस्य साधने का मार्ग सुगम बनता है । इस तरह अनेकान्तवाद का प्रस्थान भिन्न-भिन्न दृष्टिओं के सुसंगत समन्वय की दिशा में है, न कि अप्रमाणिक विरोध में ।
एक ही वस्तु के बारे में भिन्न-भिन्न दृष्टि के कारण उत्पन्न होनेवाले
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