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जैनदर्शन घोड़ा अमुक अंश विशिष्ट विष बनता है । यही नय का विषय होने की पद्धति है ।
इन्द्रियों की सहायता से अथवा सहायता के बिना उत्पन्न ज्ञान जब किसी वस्तु को यथार्थरूप से प्रकाशित करता है तब उसे प्रमाण कहते हैं,
और प्रमाण द्वारा प्रकाशित वस्तु को शब्द द्वारा दूसरे को बतलाने के लिये उस वस्तु के बारे में अंश अंश का स्पर्श करनेवाली जो मानसिक विचार क्रिया होती है वह 'नय' है अर्थात् शब्द में उतरनेवाली अथवा उतारने योग्य जो ज्ञानक्रिया वह 'नय' और उसक पुरोगामी चेतनाव्यापार वह 'प्रमाण' ।
नय प्रमाणभूत ज्ञान का अंशभूत ज्ञान है । प्रमाण के व्यापार में से ही नय के व्यापार के प्रवाह प्रकट होते हैं ।
ऊपर कहा उस तरह, प्रमाणदृष्टि वस्तु को अखण्डरूप से ग्रहण करती है और वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्म को विषय करनेवाली मुख्य दृष्टि नयदृष्टि है । एक वस्तु को कोई व्यक्ति एक दृष्टि से देखता अथवा समझता है तो उसी वस्तु को दूसरा व्यक्ति दूसरी दृष्टि से देखता अथवा समझता है । इससे एक वस्तु के बारे में अलग-अलग मनुष्यों का अलग-अलग अभिप्राय बँधता है । 'क' एक वस्तु को जिस तरह से समझा हो उसकी खबर उसी वस्तु को दूसरी तरह से समझनेवाले 'ख' को न भी हो और इसी प्रकार से 'ख' की समझ का ज्ञान 'क' को बिल्कुल न हो । परन्तु यदि इन दोनों को एकदूसरे की भिन्न-भिन्न प्रकार की समझ मालूम पड़े तो उनकी (उन दोनों की) अधूरी समझ पूर्ण हो सकती है-यदि वे वस्तुतः जिज्ञासु हों तो । ज्ञान और क्रिया इन दोनों में से किसी एक की ही उपयोगिता की समझ जिसे हो अथवा द्वैत-अद्वैत जैसे विरोधी दिखाई देनेवाले सिद्धान्तों में से किसी एक ही सिद्धान्त की जिसे समझ हो, वह यदि दूसरी बात की ओर भी अपनी विचारदृष्टि लगाये और उसके दृष्टिबन्दु को भी योग्यरूप से समझे तो दूसरी बात को भी वह मानने लगेगा ही।
जिस तरह 'प्रमाण' शुद्ध ज्ञान है उसी तरह 'नय' भी शुद्ध ज्ञान है । फिर भी इन दोनों में अन्तर इतना ही है कि एक शुद्ध ज्ञान अखण्डवस्तुस्पर्शी
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