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जैनदर्शन
में रमणता, ध्यान का प्रवाह, समाधि का आविर्भाव, मोहादि आवरणों का क्षय और अन्त में केवल ज्ञान तथा मोक्ष की प्राप्ति - इस प्रकार मूल से लेकर क्रमशः होने वाली आत्मोन्नति का वर्णन अध्यात्मशास्त्र में किया जाता I 'अध्यात्म' कहो अथवा 'योग' कहो एक ही बात है । 'योग' शब्द जोडना अर्थत्राले 'युज' धातु से बना है । कल्याणकारक धर्मसाधना अथवा मुक्तिसाधन का व्यापार, जो मुक्ति के साथ जोड़नेवाला होने से 'योग' कहलाता है । वही अध्यात्म है ।
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मोह - दशा आत्मा का गम्भीर रोग है । कर्मबन्ध की परम्परा अथवा भवभ्रमण इसी के कारण होता है । क्रोधादि इसी [ मोह ] के रूपान्तर हैं । इनके विरुद्ध आध्यात्मिक साधनों का दिग्दर्शन इस प्रकार है
क्रोध का निरोध क्षमा से होता है, मान मृदुता से शान्त होता है, माया ऋजुता से हटती है, लोभ पर सन्तोष से विजय प्राप्त किया जाता है । इन कषायों का पराभव इन्द्रियजय पर अवलम्बित है । इन्द्रियजय चित्तशुद्धि से शक्य है । चित्तशुद्धि' रागद्वेषरूपी मैल को दूर करने से होती है । इसे दूर करने का कार्य समतारूपी जल से होता है । समता ममता के त्याग से प्रकट होती है । ममता को दूर करने के लिये 'अनित्यं' (संसारे भवति सकलं यन्नयनगम' (संसार में जो कुछ दिखता है वह सब अनित्य है ) — ऐसी अनित्यभावना तथा दूसरी अशरण आदि भावनाओं का पोषण उपर्युक्त है । इन भावनाओं का बल जैसे जैसे प्रखर होता है वैसे वैसे ममत्वरूपी अन्धकार क्षीण होता जाता है और उसके अनुसार समता की ज्योति प्रकट होती जाती है । इस समता की पराकाष्ठा के परिणास्वरूप चित्त की एकाग्रता सिद्ध होती है और इसके फलस्वरूप आत्मा ध्यान अथवा समाधियोग की भूमिका पर पहुँच जाता है । ध्यान की भूमिका में आने के बाद भी यदि सिद्धि-लब्धि प्राप्त होने पर उनमें फँस जाय अथवा मन-मुटाई या पूजा - गौरव का मोह पैदा
१. " असंशयं महाबाहो ! मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय ! वैराग्येण च गृह्यते ॥ "
-- भगवद्गीता ६, ३५.
अर्थात् — सत्कर्मों के अभ्यास और वैराग्यभाव से चित्त का निरोध होता है ।
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