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द्वितीय खण्ड हो तो अध:पतन होने में देर नहीं लगती । अतः ज्ञानी-ध्यानी-योगी को अपने मोहविदारण के कार्य में अखण्ड धैर्य के साथ पूर्ण सावधान रहना चाहिए, ऐसा शास्त्रकारों का उपदेश है । वीतरागता के चरम शिखर पर जब वह पहुँचता है तब पूर्ण कृतार्थ (कृतकृत्य) हो जाता है । उस समय उस आत्मा में पूर्ण परमात्मभाव प्रकट होता है । ऐसा उत्तीर्ण आत्मा ही भगवान् अथवा परमात्मा है । जब तक शरीर होता है तब तक वह साकार परमात्मा है और बाद में निराकार ।
जब आत्मा मूढदृष्टिवाला होता है तब 'बहिरात्मा', अन्तर्दृष्टिवाला होता है तब 'अन्तरात्मा' और निरावरण दशा पर पहुँचकर पूर्णप्रकाश बनता है तब 'परमात्मा' कहा जाता है ।
बहिरात्मा, भद्रात्मा, अन्तरात्मा', सदात्मा', महात्मा', योगात्मा और परमात्मा-इस प्रकार से भी आत्मा का विकासक्रम बताया जा सकता है ।
_ 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' यह महात्मा पतञ्जलि का योग के सम्बन्ध में प्रथम सूत्रपात है । चित्तवृत्ति के निरोध का अर्थ है जहाँ-तहाँ भटकती हुई चित्तवृत्तियों को कुशल भावना में लगाना, शुभ चिन्तन में प्रवृत्त एवं व्याप्त करना ! इसी को योग कहते हैं । योग का यह अर्थ प्रथम आवश्यक पाठरूप से समझने योग्य और अभ्यसनीय है ।
चित्तवृत्ति में शुभता का जैसे-जैसे विकास होता जाता है वैसे वैसे उसकी शुद्धता एवं स्थैर्य सधने लगते हैं। इसके परिणामस्वरूप एकाग्रता की भूमिका पर वह आ सकता है । मलिन विचारों को उठने न देकर सद्विचारों में ही चित्त को रममाण रखने का अखण्ड प्रयत्न ही योगसाधन का प्राथमिक
और अत्यावश्यक मार्ग है । इसके लिये सत्यनिष्ठा सर्वप्रथम चाहिए और चाहिए दृढ निश्चय, भगवत्स्मरण एवं सत्कर्मशीलता ।
मोक्ष की साधना नए आते हुए कर्मों का रोकना और पहले के बँधे
१. सम्यग्दृष्टि प्राप्त करे तब । २. सदाचरणसम्पन्न । ३. चारित्र की महान् भूमिका पर
पहुँचा हुआ ।
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