________________
जैनदर्शन
८४
हुए कर्मों को क्षीण करना- इन दो ही क्रियाओं पर अवलम्बित है । इनमें से पहली को संवर तथा दूसरी को निर्जरा कहते हैं यह हम पहले देख चुके हैं । इन दोनों उपायों की सिद्धि के लिये सद्विचारणा, सदाचार, शम, संयम, तप, त्याग और आध्यात्मिक स्वाध्याय, तथा दोषास्पद मार्ग से दूर रहनायही अध्यात्मशास्त्र में उल्लिखित तथा प्रतिपादित साधनप्रणाली है ।
आत्मा में अनन्त शक्तियाँ है । अध्यात्म साधन के मार्ग से उन्हें विकसित किया जा सकता है । आवरणों के दूर होने से आत्मा की जो शक्तियाँ प्रकट होती है उनका वर्णन ही नहीं किया जा सकता । आत्मा की दिव्य चेतनशक्ति के आगे भौतिक विज्ञान के चमत्कार कुछ भी बिसात नहीं रखते । जड़वाद का उत्कर्ष और उससे उपलब्ध उन्नति सापाय, सपरिताप, सभय और विनश्वर हैं, जबकि विशुद्ध आत्मम-शक्ति का प्रकाश कल्याणरूप प्रकाश एवं निर्मल आनन्द का स्रोत है । यही अखण्ड और अक्षय सुख है । आध्यात्मिक यात्रा ही इसकी प्राप्ति का मार्ग है । विद्या और विज्ञान धर्मसम्पन्न होने पर ही सुख एवं अभ्युदय के सर्जक होते हैं, जबकि धर्मविरुद्ध होने पर वे दुःखरूप एवं अनर्थकारक बनते हैं !
भावना :
मोह - ममत्व को नरम करने में भावनाओं का बल बहुत कार्य करता है यह ऊपर कहा गया है। जैन ग्रन्थों में इस बारे में ऐसी बारहं भावनाओं का जिन्हें अनुप्रेक्षा भी कहते हैं, उपदेश दिया गया है ।
१. स्वामी शंकराचार्य भी साधनपञ्चकस्तोत्र में ऐसा ही कहते हैं"प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिष्यतां । प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम् ॥"
अर्थात् —— पहले के बँधे हुए कर्मों को ज्ञान-शक्ति से नष्ट करो, नएँ कर्मों से न बँध तथा प्रारब्ध ( उदयगत) कर्म (समभाव से) भोगो और इस प्रकार परब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करो ।
जैनदर्शन में कर्म की बध्यमान, सत् और उदयमान ऐसी तीन अवस्थाएँ मानी गई हैं। इनमें क्रमशः बन्ध, सत्ता और उदय कहते हैं । जैनेतर दर्शनों में बध्यमान कर्म को 'क्रियमाण', सत्कर्म (सत्तागत कर्म) को 'संचित' और उदयमान कर्म को 'प्रारब्ध' कहते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org