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जैनदर्शन
उसका जब अन्त आता है तब उसका फलोदय समाप्त होता है । यही कारण है कि अच्छी स्थिति को सदा चालू रखने के लिये उसके साधनरूप शुभभाग्य के सर्जन में (यह सर्जन-क्रिया और कुछ नहीं, परन्तु सदाचरणमय जीवनचर्या होने से उसमें) सुज्ञ मनुष्य सदा तत्पर रहता है । ऐसा करके वह अपने आपको सदा सुखी बनाता है और साथ ही अपनी उन्नति तथा विकास करता जाता है। उत्तरोत्तर विकासनशील जीवन के शुभ प्रवाह में ऐसा महान् अपूर्व अवसर आता है जब आत्मविकास की पूर्णता पर पहुंचने की वह प्राप्ति करता है ।
कर्मवाद का सद्बोध आत्मसाधक मुमुक्षु को अपना बुरा करनेवाले मनुष्य के ऊपर क्षमाभाव रखने में भी उपयोगी होता है, और अपना बरा करनेवाले मनुष्य की बुराई का न्याय्य मार्ग से शक्य प्रतीकार करनेवाले को
भी बराई करनेवाले मनुष्य के ऊपर वैरभाव न रखकर उसकी ओर क्षमाभाव रखने में सहायक होता है ।।
'मेरा विरोधी मेरे साथ जो दुर्व्यवहार करता है वह मेरे अपने कर्म के बल पर करता है । मेरा कर्म उसे हथियार बनाकर उसके द्वारा ऐसा कराता है । अतः उस मनुष्य के ऊपर क्रोध करना अनुचित है । क्रोध तो उस मनुष्य को निमित्त (हथियार)बनानेवाले मेरे अपने कर्म पर ही करना चाहिए'-ऐसी विचारधारा का आश्रय मुमुक्षु को सात्विक क्षमाशील बनने में तथा क्रोध-कषाय या झगड़े-फसाद के दुष्कर्मबन्धक कलुषित वातावरण से अपने मन को दूर रखने में सहायक हो सकता है ।
कर्म-तत्त्व का ज्ञाता यह बराबर समझता है कि दुर्जन के दौर्जन्य के पीछे उसका अज्ञान-रोग अथवा कषाय-रोग प्रेरक है । अतः उस मनुष्य की ओर वैरवृत्ति न रखकर वह जवरात अथवा रोगात मनुष्य की भाँति भावदया और क्षमाभाव का पात्र है ऐसा वह समझता है ।।
कर्म का सिद्धान्त समझनेवाला नियतकालिक कर्म के नियत-कालिक फल पर मद या अहंकार न करे अथवा विषण्ण न हो । आया हुआ कष्ट अथवा संकट स्वयं अपने दुष्कर्म द्वारा ही उत्पन्न है, ऐसा समझकर वह
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