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तृतीय खण्ड
२२९ में सत्कर्म द्वारा सुभाग एवं महाभाग बनने की ध्वनि है और ईश्वरवाद के सिद्धान्त में सच्चरित बनने के लिये परमात्मा का अवलम्बन लेने की ध्वनि है अथवा सच्चरित द्वारा भगवत्प्राप्ति की अभिव्यंजना है । जीवन की ग्लानि दूर करने में, आत्मा को धीरज देने में, सन्तोष और शान्ति के प्रदान में तथा सदाचरण की प्रेरणा करने में ये दोनों सिद्धान्त बहुत समर्थ हैं ।
कर्म (भाग्य) भी मनुष्यों के (प्राणियों के) अपने प्रयत्न से ही उत्पन्न होनेवाली वस्तु है । अच्छे काम में मनुष्य अपने अच्छे कर्म (भाग्य) को
और बुरे काम से अपने बुरे कर्म को पैदा करता है । अर्थात् अपने भाग्य (कर्म) का स्वयं निर्माण करके उसका शुभाशुभ परिणाम (कडुए मीठे फल) प्राप्त करना मनुष्य के अपने हाथ की बात है—Man is the architect of his fortune. इसीलिये सुख अथवा अभ्युदय चाहनेवाला मनुष्य उत्साहपूर्वक सदाचरणपरायण बनता है । सद्भाग्य से मिली हुई सम्पत्ति में यदि मनुष्य बहक जाय, घमण्डी बनकर मत्त-प्रमत्त-उन्मत्त बने तो भविष्य के लिये वह खराब कर्म बाँधता है और उसका वर्तमान सुखोपभोग उसके प्रवर्तमान कर्मोदय की अवधि तक ही सीमित रहता है । अतः कर्मवाद के साथ यह भी सुबोध गूंथा हुआ है कि जिस प्रकार दुःख समता से भोगना चाहिए उसी प्रकार शुभ कर्म के अच्छे फल भी समता से भोगने चाहिए ।
____ ऊपर कहा उस तरह भाग्य (कर्म) वाद भी मनुष्य को सदाचरण की ओर प्रेरित करनेवाला वाद है, और सदाचरण की भावना ईश्वर का (परमात्मा का) अवलम्बन लेने से(ईश्वरनिष्ठा से) विकसित होती है। बाकी, सीधे तौर से हमारे कर्म (भाग्य) में परिवर्तन अथवा उसका नवविधान या विघातन कर सके ऐसा कोई ईश्वर अथवा भगवान् नहीं है । परन्तु उसका (भगवान् का) आश्रय लेने से जो धर्मभावना खिलती है, जो धर्म की साधना होती है वह अपनी मात्रा के अनुसार कर्म (भाग्य) पर भी प्रभाव डाल सकती है। इस तरह अशुभ भाग्य अथवा कर्म में परिवर्तन लाया जा सकता है-अशुभ कर्म को शुभ में बदलाया जा सकता है और उसे (अशुभ कर्म को ) प्रायः विनष्ट भी किया जा सकता है । हमें यह सर्वदा ध्यान में रखना चाहिए कि कोई कर्म अथवा भाग्य सदा के लिये नहीं टिकता । उस की मुद्दत पूर्ण होने पर
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