________________
२२८
जैनदर्शन
पर । यह ऊँच-नीचता प्रकृतिधर्मकृत समझनी चाहिए ।
वस्तुतः आजकल की सामाजिक रचना में भी तथा-कथित नीच कुल में उत्पन्न मनुष्य भी यदि सम्यग्दृष्टि के साथ-साथ व्रताचरण-सम्पन्न हो तो उसके नीच-गोत्र का नहीं किन्तु उच्च-गोत्र का उदय है--ऐसा जैन कर्मशास्त्र कहते हैं । अर्थात् दृष्टि और आचरण के सुसंस्कारवाले को, फिर वह किसी भी जाति-कुल-वंश का क्यों न हो, जैनशास्त्र नीच-गोत्र का नहीं परन्तु उच्चगोत्र के उदयवाला मानता है । अरे ! चाण्डाल जाति के होने पर भी जो उत्तम चारित्रसम्पन्न बने हैं उनके लिये जैन आगमों ने पूजावाचक शब्दों का प्रयोग करके उनका अत्यन्त सम्मान पूर्वक उल्लेख किया है । (२०) ज्ञान-भक्ति-कर्म :
ईश्वरवाद की अर्थात् के ईश्वर के-भगवान् के अस्तित्व के सिद्धान्त की उपयोगिता अन्तःकरण को निर्मल बनाने में चारित्र-गठन में तथा जीवनविकासक प्रेरणा प्राप्त करके सन्मार्ग की ओर प्रगति करने में प्रतीत होती है । इसी प्रकार कर्मवाद अथवा भाग्यवाद की उपयोगिता सुख-दुःख के समय समता रखने में तथा सत्कार्य में समुद्यत रहने में प्रतीत होती है । शुद्ध ईश्वरवादी अथवा भगवदुपासक व्यक्ति प्रभु की ओर अपनी निर्मल भक्ति को विकसित करके अपने चरित्र को समुन्नत बनाएगा और इस तरह ईश्वरवाद उसके जीवन के लिये कल्याणकारक सिद्ध होगा । इसी प्रकार शुद्ध भाग्यवादी अर्थात् 'कर्म' के नियम को मानने वाला सुख के समय घमण्डी और दुःख के समय दीन-हीन-कायर नहीं बनेगा, परन्तु इन सब परिस्थितियों को कर्म का खेल समझ कर मन की समता (Balance of mind) सँभाल रखेगा, और सत्कर्म अथवा सत्पुरूषार्थ द्वारा दु:ख में से मार्ग निकाला जा सकता है तथा सन्मार्ग पर प्रगति करते रहने से अपने जीवन को अधिकाधिक सुखी बनाया जा सकता है-इस प्रकार की सुदृष्टि से अपने जीवन को समुन्नत बनाने में प्रयत्नशील रहेगा । कर्मवाद अथवा ईश्वरवाद जैसे महान् सिद्धान्तों का निष्क्रियता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । वे निष्क्रियता का पाठ नहीं पढ़ाते, परन्तु कर्तव्यपरायण बनने की शिक्षा देते हैं । इतना ही नहीं, वे सच्चा कर्मण्य बनने के लिये योग्य 'मसाला' प्रस्तुत करते हैं । कर्मवाद के सिद्धान्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org